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Showing posts from 2013

आभास...

आभास कितना सहज है होता जब आता है पिरोये हुए अहसास को अपने में। आओ सहजता का आभास पिरोयें अपने में।

कथा की कहानी

मैं कथा की कहानी कहने चला हूँ। कथा को हम सभी जानते हैं। हम सब में एक कथा है- मुझमें और आप में - हर उस मन में कथा का ठहराव है जिसे आस पास का कुछ महसूस होता है। कथा प्रतीक है- पर आप इसे एपिसोड्स में नहीं बाँध सकते। अभी तो आईडिया ही आया है- जब कुछ कहने लायक होगा तो छप जाएगा फेसबुक पर भी। अभी मन के काग़ज़ों पे ही छींटें पड़ रहे हैं। आओ कहानी कहें। विशेष नोट ( इंग्लिश में भी लिख सकता था मैं पर मित्रवर नकार गए सो मन की बात मन की भाषा में लिखी जाएगी)

अराजकता के महासम्मेलन

सभी सभासदों के बीच ये बात है आज फिर कीडे-मकोड़े आने हैं। कभी हरियाली हुई काली और अब गुलाबी को बेरंग करते कुकुरमुतों के काफ़िले बढ़ रहे हैं। उन्हें बताया गया है के वे बढ़ रहे हैं जब सभासद जीत रहें हैं। फिर भी नागरिक का सामूहिक शोषण है। उदासीनता है- हताशा है प्रजातंत्र में। भंग करने की लालसा है जनता में। कि अब नहीं उम्मीद कोई बस गिरावट ही गिरावट है। और देखो भला... असमंजस में फ़सीं भेड़ें गाड़ियों में ठूस ली गयी हैं। वही गाड़ियां पहले हरी पगड़ियों से सनी और अब गुलामी का गुलाबी पहन के सर पे बढ़ी जा रही हैं। आज तो ख़ाकी भी डंडा लिए जनता की सेवा में है। मजाल है कोई जाम लगे। आज-कल तो अराजकता के महासम्मेलन होते हैं। आओ शाम की वापसी की हुल्लड़बाज़ी का इंतज़ार करें।

हम निभा लें धरती ही...

जहां चाँदनी मुस्कुराती हो समय से आती हो-साथ रहती हो। ठंडक स्वभाव में होनी ही चाहिये। और क्या जवाब दें भला... ग्रहों-ग्रहों भटकने वाले हम निभा लें धरती ही तो बहुत होगा। मौकापरस्ती की कौम है बनी सारी थोड़ा इसी गिरावट को सम्भालें तो बहुत होगा।

क्यूँ भला- क्या भला

क्या भला करते हैं हम कोशिश प्रयास क्यूँ भला हम करते हैं। गाहे-बगाहे सफ़ल भी होते फिर भी तो संकोच हैं करते। दोहराते हैं हम वही विधि जिसमें आती है निति। इक नन्हे बालक की भांति जीवन को चलाते हैं और दंभ भरते हैं परिपक्वता का। क्यूँ भला करते हैं हम कोशिश प्रयास क्या भला हम करते हैं।

अनमनी सी इक मनी

अनमनी सी इक मनी किसने मानी किसने सुनी। हिस्सेदार कईं हैं इस मनी के और अहिस्सा रहा एक बस अनमनी कैसे बने सहमनी किसने बनायी है भला अनमनी कैसे बनी।

मन उज्ज्वल तो जग

मन उज्ज्वल तो जग जग उज्ज्वल तो हर ओर जग-मग जग-मग होती है। रस्ते-रस्ते खुशियाँ आती आती हैं लड़ियाँ खिलती खुलती हैं पेटियाँ-बक्से बंटते हैं खेल-खिलौने मीठा-शीठा भी तो आता बम्ब-पटाखे कोई लाता। कोई कोई क्या सब कोई ये और सारे त्यौहार मनाता। दिन किसी के आने का वापस अपने घर-अयोध्या में और दीप जले घर-घर देखो जग-जग मग-मग करते हैं। बात यही है समझ में आती घर लौट के आना अपनों के संग ही दिवाली है होती । आओ चलो मिलते हैं सबसे मेरे तेरे सबके अपने... अपने भी वही हैं होते सुख-दुःख के साथी हैं जो सब। आओ मिलो... दीप जलाओ-ख़ुशी मनाओ।

आज आख़िरी बार रतिया जाना है-औपचारिक रूप से तो... October 30,2013

मिगलानी टी स्टाल पे चलता लखबीर सिंह लख्खा का भजन... काम होगा वही जिसे चाहोगे राम...अपने स्वामी को सेवक क्या समझाएगा.. उंघते से कुछ मेरे जैसे लोग कुछ तरो-ताज़ा. यात्री.. सब आ-जा रहें हैं। सड़क के दूसरी ओर अख़बार असेम्बल हो रहे हैं। उनमें इश्तहार डल रहे हैं। और ये काम इतनी तेज़ गति से हो रहा है कि पारंगत हाथ-आँखें और दानवीर जिह्वा से आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। लखबीर -झुला झूले रे बजरंगी हनुमान..-पर आ चुके हैं। अखबार की कार्यशाला के पास ही सोया हुआ छोटा सा पुलिस थाना है और बगल में ही एक असहाय एटीएम। मुझे किसी ऐसी गाड़ी का इम्तजार है जो अखबार ढोती हुई मेरे शहर से होकर जायेगी। फतेहाबाद से रतिया आप हर वक़्त नहीं जा सकते बस से। बस के आने में अभी तो पैंतालिस मिनट हैं। रतिया के लिए-मेरे लिए फतेहाबाद शहर हुआ करता...फिर हिसार इससे बड़ा लगा..कुरुक्षेत्र से पढ़ाई की तो (एक अखबार वाली गाड़ी मिल गयी है-जिसमें पीछे के हिस्से में सीट हैं और ड्राईवर मिगलानी से चाय पीते ही चल पड़ेगा) ...कुरुक्षेत्र से मैं चलता फिरता संसाधन बना और कुछ दिन-महीनों फतेहाबाद मैं अपनी पहली नौकरी की। और फिर एमिटी ने बु

नीम से कुछ पत्ते गिरे हैं...

नीम के पेड़ से आज अभी पत्ते गिर रहे हैं- सड़क भरी पड़ी है पत्तों से जो टूटे हैं अलग-अलग टहनियों से कोई तो मज़बूत रही होगी किऐ कमज़ोर ने भी त्याग दिया होगा फिर भी कोई टकराव नहीं सब सहज हैं-समर्पित। पत्ते ये किसी के भी पैरों तले आ रहे हैं। कितने सहनशील हैं। शील। कुछ गाढ़े हरे भी और बाकी पीले हैं कुछ अधपीले- कुछ छोटे हैं और कुछ दूर जा पड़े हैं अपने घर की सीमा से। फिर भी- मुझे पता है- मुझे ही क्या सबको पहचान है/ कि ये सब पत्ते नीम के ही हैं। नीम के इस पेड़ से आज-अभी कुछ पत्ते गिरे हैं।

मैं रहूँ सहज-और रहूँ बस

मैं मुझको जाणु और मैं ही पहचाणु मुझको। मैं बरसों-बरस खुल-खुल के बंधा जाता। मैं बिना पूछे-कहे निभाता जाता। यूँ ही चला चल राही कितनी हसीन है ये दुनिया। रास्ते- वास्ते बदले काहे को तू मन छोड़े काहे को अपनी बोली बदले तू अपनी भाषा ही अपनी है रहती परि-भाषा तो पराई ही है होती। मैं रहूँ सहज-और रहूँ बस .... बस रह जाऊँ-ख़ुद से निभा जाऊँ।

निचोड़ा हुआ सा मन और मन में गूँजती हुई आवाज़ें

दिनों दिन महीने और बरस-दर-बरस इक तारा बन के गूँजते बजते रहना और सम्मोहन को नाम देना प्यार का निभाते रहना और फिर एक दिन खींच लेना हाथ .... खाली हाथ-सामने वाली हथेली ही जब खामोश है अबके तो मेरी अंधी उँगलियाँ भला किसको थामें। तो भला कौन सा त्योहार-अबकी बार। ये कहानी है दोस्त किरदार बदलते हैं- कथानक तो वही रहता है। अजब होगा वो भी खेला जब हाथी से खाली हुई जगह को भरा जाएगा उसकी अनुपस्थिति से। इक तारा कैसा साज है... एकला भी कितना सहज है- भीड़ में भी कितना सरल। देखें ज़रा ज़िद्द करें हम भी। मंच के पीछे बहुत कुछ होता है कथानक में नहीं पात्रों के जीवन में- जीया जाये चलो उन्हीं पुराने दिनों को। इक तारा गूँजता रहे बस। सहज-सरल।

सारा दिन बैठा रहा शनि

मेट्रो स्टेशन के बाहर वहाँ जहाँ पास में खड़ी होती हैं कुछ रेहड़ियाँ - बहुत सारी रिक्शा जहाँ है एक पान-बीड़ी वाला और एक नीली वर्दी वाला भी, जिसका काम वैसे तो डाँटना-डपटना है रिक्शावालों को पर जैसे दो अलग-अलग दरख़्त दोस्त बन जाते हैं- वे भी सब दोस्त हैं अब। स्टेशन के बाहर वहीं गेट नंबर 2 की ओर जाते हुए फुटपाथ के सिरे पे रखा है एक काला लोहे का कनस्तर बिना ढक्कन का धुआँ-धुआँ है पास-आस उसके और खुले उस कनस्तर में कुछ पैसे पड़े हैं सटे-सटे से बहुत और कुछ अलग-थलग वो धूप-सुगंध घेराव कर रही है मनघड़न्त से साइज़-शेप के ढले उस धातु के टुकड़े का जो शायद लोहे का ही है। वहाँ वैसे कोई बैठा नहीं है-मैला सा कुर्ता और गमछा पहने! शनि बैठे हैं वहाँ और जो डरते हैं उनसे- अर्थात जो मिले नहीं हैं उनसे कभी वे- कुछ दान देते हैं कनस्तर को शनि सुबह से वहीं बैठा है लावारिस.... दोपहर को भी और जब मैं लोटता हूँ शाम को तब भी वही धूप-कनस्तर और शनि! कितनी आस्था रखते हैं लोग कनस्तर में- और शनि को कोई पूछता भी नहीं। जैसे-जैसे भरता है खुल्ले पैसों से खाली होता है शनि... हर हफ़्ते फिर आ जाता है कनस्तर अपने शनि के साथ!

हिंदी! तुम अब भी हो!

तुम बचपन से लेकर यौवन तक-साथ हो जो सीखा है तुम रही हो उसमें और जो सीखना है उसका भी माध्यम मूलत: तुम ही रहोगी! तुम शाश्वत उपस्थिति हो तुम सकारात्मक परिस्थिति हो तुम भरी पड़ी हो भावों से आयी हो कितने मुश्किल पड़ावों से किसी को जकड़ना हो अगर तो बस तुम्हें ही चोट पहुँचाना क़ाफी है सदियां गुज़री हैं तेरे साथ और तुम्हें मानकर! तेरा सम्मान करना सबके प्यार का सम्मान करना है और तुझे सीखना  सोचना सीख लेना है! तुम कविता कहळवती हो तुम कहानियाँ रचवाती हो तुम टूटमूईया-बेतरतीब लिखवा देती हो पर... तुम एक दिन मात्र बन के रह गयी हो तुम्हें मानने-अपनाने के लिए अब सरकारी आदेश आते हैं तुम तो सार्वभौमिक थीं ये क्या... तुम इतनी कमज़ोर कैसे हो गयीं  या के? तुम तो अब भी मज़बूत-सबल हो परंतु तुम्हें बोलने वाले अब निरीह-शिथिल हो चुके हैं हाइब्रिड जीवन जीने वालों ने तुम्हारा मोल-भाव किया है अपनी नयी सीखी भाषा से... हिन्दी... तुम आधुनिकों को अच्छी ना भी  लगो   तो... तो क्या हुआ... मैं  तो अब भी तुमसे ही सोचता-कहता हूँ और मेरे जैसे और भी है...बहुत सारे-सब हमारे! हिन्दी दिवस (14 सितंबर)

धर्म ...कभी भूखे पेट सोये हो क्या...

धर्म तुम दिखने में कैसे हो देखा नहीं है तुम्हें कभी... तुम शरीर हो क्या कोई या नाममात्र हो कुछ पंछी तो तुम नहीं हो सकते और तुम्हें पशु मैं नहीं कहना चाहता। तो भला कौन सा वर्ण है तुम्हारा,कौन से कुल के हो तुम? धर्म तुम पढ़े-लिखे भी हो क्या कभी रोटी देखी है तुमने और कभी भूखे पेट सोये हो क्या धर्म तुम बेघर भी हो क्या क्या हो तुम लहुलुहान बच्चे का चेहरा क्या तुम बिलखती हुई माँ हो हो क्या तुम एक टूटा  हुआ पिता क्या तुम असहाय बेटी हो या भड़का हुआ बेटा? ......

ए बंदा बना के तूँ दस की लभया...

हिंदुस्तान की ज़िंदादिली बड़ी पसंद रही है। बड़ा अच्छा लगता रहा है ये देखना के तमाम आतंकवादी हमलों के बाद शहर फिर उठ खड़े होते हैं। बडे जोश - उमंग से बताया भी जाता रहा है...दिल्ली दिलवालों की...आमची मुंबई....हैदराबाद या कोई और 'बड़ा' शहर... फिर से अपने काम में लग जाता है। सदमों को भुलाने की अद्भुत क्षमता है हमारी और अब तो इन तमाम दशकों में हम पारंगत हो चुके हैं हमलों को भूलने में। हमारे फ्रेंड सर्कल में अगर कोई इतना बेशर्म भुलक्कड़ हो तो हमें हैरान होकर पूछना पड़ता है के भाई तेरा कोई दीन ईमान है या सब बेच खाया। मेरे बड़े शहर के पढ़े-लिखे आदिवासिओ(वो जंगलों में रहकर भी हमसे कहीं ज़्यादा सभ्य हैं अभी तक) अपना कोई दिन ईमान बचा है या हमने अख़बार की रद्दी-सा सब बेच खाया। एक दिन पहले ही किसी अपने से मुंबई और दिल्ली को लेकर बात हो रही थी। दिल्ली बेशर्म है, यहाँ आप अपने परिवार के साथ चलते हैं तो आस-पास चलते लोगों की आँखें गन्दी दिखती हैं। जिस तरह से यहाँ महिलाओं को ताका जाता है-टोका जाता है वो ही यहाँ की पहचान है। मुंबई का उन्होंने अपना कुछ साल पहले का अनुभव बताया कि वहाँ भीड़ तो है

॥ कौण जाणे गुण तेरे ॥

॥ कौण जाणे गुण तेरे ॥  भारत के पास एक अच्छी परम्परा है के यहाँ बिना प्रासंगिकता देखे किसी को भी-कुछ भी ज़बरदस्ती सिखा दिया जाता है। हाँ , पर अरसे बाद यही ठुंसा हुआ ज्ञान काम आ जाता है। सांस्कृतिक इतिहास की समझ रखकर इसे बिना किसी टकराव के परिष्कृत करने वाले मन (दिमाग नहीं) को कहीं भी-कुछ भी अपना मिल ही जाता है। बचपन की वो अधपकी अनुभव रोटियाँ जब पकती हैं तो मज़ा आ जाता है। किसी भाषा को सीखना पड़ा हो और वो आगे कभी सुनने-बोलने को मिल जाए , किसी जगह पे कुछ ऐसा देखने को मिले जो बचपन में देखा था , या देखना पड़ा था , तो हम अपने आपको ज्ञान कोष मान लेते हैं और सिखा देते हैं अनजान को वो जो हमें ख़ुद थोड़ा ही आता है। अक्षरधाम मंदिर में जाकर , ' उनके ' गुरुओं ने कौन सी ' मेरी ' बातें कहीं- यही अच्छा लगा। निसंदेह , मुझे मेरा राष्ट्रवाद हठी प्रतीत होता है- शायद सही शब्दों में तो मैं इसे स्वयंवाद कहूँगा- परन्तु इसमें उकसाने वाला कुछ नहीं है। राष्ट्रवाद बहुत छोटी सी भावना है। कभी राष्ट्रभक्ति या देशभक्ति में उलझ भी जाती है और फिर बाँध दी जाती है संकीर्णता में-भ्रम और धर्

चार पंक्तियाँ: अर्थात: ""चाप""

चार पंक्तियाँ: अर्थात: ""चाप"" प्रथम प्रस्तुत है... पन्ने-पन्ने नाम तुम्हारा पढ़ना-सुनना लिखना-कहना यही तो है बस काम हमारा! प्रस्तुत है- चाप 2 आओ मैं लिखूं तुम्हारी बातें आज की बात यही है कविता इस से अच्छी और भला क्या होगी वो बात जो मैंने सुनी-और तुमने कही है। चार पंक्तियाँ: चाप 3 अधपकी नींद-अनबनी ईमारत सी चरमराती है ये देख इस ख्व़ाब की लकीरें उस ख़्वाब तक जाती हैं। धुंधली रौशनी में इतना तो असर ज़रूर होता है आँखे जो इक साथ खुली हों - जुगनू सी जगमगाती हैं। चाप 04 तुम लौटो तो ज़रा उस कोने में दीवारें मिलती हैं जहां साथ साथ. हम अपनों से बतियाते हैं यहीं सकुचाते भी तो हैं हम सिर्फ किसी कोने में!

कुछ कदमों की बात थी...

मैंने कहा तुमसे कि बात इतनी सी है बस इतनी ही के चलना है साथ तुम्हारे और सब वैसा ही करना है जैसा जीवन होता है संजोना है अपने आस-पास के रंगों को बांटना है सब अच्छा-अच्छा और फिर लौट के आना भी है शाम ढले हमारे अपने बनाये-सजाये घर में बोलो साथ चलोगे... ये जानते हुए भी के ये सौदा कितना छोटा-सस्ता है तुमने हामी भरी संभालने-संजोने-सजाने को माने तुम साथ चलना ज़्यादा बड़ी बात है ये छोटी-सी बात जाने तुम रंग लाये तुम आस-पास के रंगों को भी कितना भाए तुम... आए और थामा मेरा हाथ तुमने सौंपा अपने जीवन को और किया ये सौदा साथ का... कुछ कदमों की बात थी... और मेरे साथ हो लिए तुम। जीवन भर के लिए!

लो मैं लगा हूँ उकेरने आज प्यार तुम्हारा...

लो मैं लगा हूँ उकेरने आज प्यार तुम्हारा... और देखो सब निहार रहें हैं मुझे! मेरी मुस्कुराहट सबको अपनी-सी लग रही है मेरी हथेली में ढूंढ रहें हैं सब अपना-अपना सौभाग्य! वही हथेली-जिसपे चाँद बनाया था तुमने... मेहंदी रंग का! और मुझे वो धुधिया लगा था! कितनी ठंडक है स्पर्श में तुम्हारे! किसी को भिगो रहे हो-किसी को संभाल किसी को समेट रहे हो-किसी को खंगाल... तुम , कितने आप हो ! सभी रंग अपने को समर्पित कर चुके हैं संगीत-सा आ गया है चेहरे पे मेरे मेरा चेहरा तुम्हारा चेहरा है ना ! पलकें हैं ना तुम्हारी पंखुरियाँ हैं ना जो गुलाब की... और वो प्यारी-सी नखरो ठुड्डी... .... मैंने तो सब अपना मान लिया है मन से... बहूत प्यारे हो... सुंदर भी!

आसक्त नहीं- सशक्त होना ज़रूरी है...

बात करते-करते कितनी बातें बन जाती  हैं बन जाती हैं कितनी बातें- खेल खिलौने कितने आ जाते हैं आ जाते हैं खेल-खिलौने! आना जाना   लगा रहता है- जो जाता है वही आता है या कहूँ जो आता है- वो जाता है... संभालना-समझना-संजोना सब तो इस आने-जाने की बीच का रास्ता है और रास्ता साधन मात्र नहीं... अपने आकार को देखना-चलना ज़रूरी है आसक्त नहीं- सशक्त होना ज़रूरी है..

तुम ही बता दो

तुम पर बात कहूँ तो रंग बिखर जाते हैं हर तरफ़ अब तुम ही बता दो, मैं रंगो से बात करूँ या ख़ुद से...

तुमसे ज़्यादा कौन रूमानी है-कौन प्यारा है- कौन अपना है!

“ कुछ रूमानी लिखो ना! मौसम भी अच्छा सा है... या कहूँ के तुम सा है। ” ये बात कही है उसने मुझे और मैं लिखने बैठा हूँ... कुछ रूमानी कुछ प्यारा कुछ रंगीन कुछ ऐसा जिसमें बात भी हो और साथ भी... जो पास भी हो और ख़ास भी। जिसमें जादू भी हो और हो जादूगर भी... जिसमें बचपन हो और उम्र भी॥ भला लिखना कैसे आ जाता है जब तुम्हारा हुकुम होता है...या कहूँ के तुम ऐसे ही कह देते हो कि सुनाओ ना कुछ अपना सा- और मैं लिखने बैठ जाता हूँ! कुछ रूमानी कुछ प्यारा सा कुछ अपना सा रंगीन …………….. अरे सुनो ………. मुझे सुनने वाले मेरे साथी तुम्हारा नाम तो कहो ज़रा वही लिख कर कागज़ भेज दूँ तुम्हारे पास... भला- तुमसे ज़्यादा कौन रूमानी है-कौन प्यारा है- कौन अपना है!

छुपन-छुपाई.....

छुपन-छुपाई खेला करते बचपन में... सोचा करते खेल है ये-खेल खेल में ढूंढा करते छिपे हुओं को गिनते थे गिनती और दौड़ते जाते थे बोल-बोल कर दोस्त अपने को ना पहले कहते थे कुछ हाँ... कभी-कभी उनको ही कहते थे पहले …….. कितना खिलाड़ी है ना ये ऊपर वाला खेल भी खेलता है और धप्पा भी नहीं करता। बस खोजने देता है ख़ुद ही- ख़ुद को!