॥ कौण जाणे गुण तेरे ॥
॥ कौण जाणे गुण
तेरे ॥
भारत के पास एक अच्छी परम्परा है के यहाँ बिना प्रासंगिकता देखे किसी को भी-कुछ भी ज़बरदस्ती सिखा दिया जाता है।
हाँ, पर अरसे बाद यही ठुंसा हुआ ज्ञान काम आ जाता है।
सांस्कृतिक इतिहास की समझ रखकर इसे बिना किसी टकराव के परिष्कृत करने वाले मन (दिमाग नहीं) को कहीं भी-कुछ भी अपना मिल ही जाता है।
बचपन की वो अधपकी अनुभव रोटियाँ जब पकती हैं तो मज़ा आ जाता है।
किसी भाषा को सीखना पड़ा हो और वो आगे कभी सुनने-बोलने को मिल जाए, किसी जगह पे कुछ ऐसा देखने को मिले जो बचपन में देखा था, या देखना पड़ा था, तो हम अपने आपको ज्ञान कोष मान लेते हैं और सिखा देते हैं अनजान को वो जो हमें ख़ुद थोड़ा ही आता है।
अक्षरधाम मंदिर में जाकर, 'उनके' गुरुओं ने कौन सी 'मेरी' बातें कहीं- यही अच्छा लगा।
निसंदेह, मुझे मेरा राष्ट्रवाद हठी प्रतीत होता है- शायद सही शब्दों में तो मैं इसे स्वयंवाद कहूँगा- परन्तु इसमें उकसाने वाला कुछ नहीं है।
राष्ट्रवाद बहुत छोटी सी भावना है। कभी राष्ट्रभक्ति या देशभक्ति में उलझ भी जाती है और फिर बाँध दी जाती है संकीर्णता में-भ्रम और धर्म में।
मुझे अपने देश की अंधश्रध्धा और पागलपन से उतनी दिक्कत ना हो शायद, जितनी मुझे अपने आप पे कोई बात आने पे होती है। मानवीय प्रवृति है।
हम मिलें नहीं हैं बहुत लोगों से-बहुत सारे जीवन हमने देखे नहीं हैं।
जब पंजाब के मलोट के कान्वेंट की एक स्कूली लड़की को अपने रुमाल से सर ढके देखा तो लगा उसके लिए अक्षरधाम गुजराती शिल्प या कोई पर्यटन स्थल नहीं गुरुद्वारा साहिब है। जब बिना किसी "दान देने के परोक्ष इशारे" के लोगों को हर पानी के कुंड में या किसी भी जगह छोटे पैसे फैंकते देखा तो लगा, इनके लिए यही हिन्दू मंदिर है। जब कान्वेंट की सिस्टर को, ठेठ पंजाबी बोलते बच्चों को साथ रखते- समझते समझाते पाया तो अच्छा लगा।
जब किश्ती-जो मशीनी थी- में बैठकर पतंजली-प्रताप-अशोक-चरक-आर्यभट-राम-अर्जुन-किशन-नानक-भरतमुनि और सभी पुरातन पुरोधा देखे तो भारतीयता की परिपक्वता समझ आई।
सुबह खबर देख के गया था के मिस्र में 500 मरे-भारत को गिरकर उठना आता है, यही महसूस हुआ।
किसी का युवासक्ति (शक्ति) पे किया कटाक्ष समझ आया....के अपने देश से गोबर अगर विदेश जाकर 'पैक' हो कर आ जाए तो ये उसे 'ब्राउनी' कह देंगे।
मज़ाक तो था-उतने बुरे भी नहीं हैं-पर पहले अपना देश जान तो लें-इसे निलंबित करके भागते क्यूँ हैं।
किसी बहाने से सही-महंगी टिकट-लम्बी कतार-बिना चमड़े की बेल्ट-पर्स के सही-अपने 'क्लिक मी वन्स' आनंद के बिना सही,
हम कुछ साथ जाकर देख तो रहें हैं।
दर्शनीय स्थल इसलिए दर्शनीय नहीं होते कि वो किसी संप्रदाय ने बनाये हैं और बहुत आलिशान या साधारण बनायें हैं; बल्कि, वहां एकत्र हुआ जीवन दर्शन योग्य होता है।
और आप खुद को-स्वयं को-अपने आप को- जीवित पाकर खुश होते हैं।
अपने जीवन के शिल्पकार आप स्वयं हैं। कैसे घड़ना है-कितना तराशना है-कितना तोड़ना है-कितना जोड़ना है
सब आपको देखना है।
पत्थर का ज़मीन के पास रहना सच में ज़रूरी होता है।
भारत के पास एक अच्छी परम्परा है के यहाँ बिना प्रासंगिकता देखे किसी को भी-कुछ भी ज़बरदस्ती सिखा दिया जाता है।
हाँ, पर अरसे बाद यही ठुंसा हुआ ज्ञान काम आ जाता है।
सांस्कृतिक इतिहास की समझ रखकर इसे बिना किसी टकराव के परिष्कृत करने वाले मन (दिमाग नहीं) को कहीं भी-कुछ भी अपना मिल ही जाता है।
बचपन की वो अधपकी अनुभव रोटियाँ जब पकती हैं तो मज़ा आ जाता है।
किसी भाषा को सीखना पड़ा हो और वो आगे कभी सुनने-बोलने को मिल जाए, किसी जगह पे कुछ ऐसा देखने को मिले जो बचपन में देखा था, या देखना पड़ा था, तो हम अपने आपको ज्ञान कोष मान लेते हैं और सिखा देते हैं अनजान को वो जो हमें ख़ुद थोड़ा ही आता है।
अक्षरधाम मंदिर में जाकर, 'उनके' गुरुओं ने कौन सी 'मेरी' बातें कहीं- यही अच्छा लगा।
निसंदेह, मुझे मेरा राष्ट्रवाद हठी प्रतीत होता है- शायद सही शब्दों में तो मैं इसे स्वयंवाद कहूँगा- परन्तु इसमें उकसाने वाला कुछ नहीं है।
राष्ट्रवाद बहुत छोटी सी भावना है। कभी राष्ट्रभक्ति या देशभक्ति में उलझ भी जाती है और फिर बाँध दी जाती है संकीर्णता में-भ्रम और धर्म में।
मुझे अपने देश की अंधश्रध्धा और पागलपन से उतनी दिक्कत ना हो शायद, जितनी मुझे अपने आप पे कोई बात आने पे होती है। मानवीय प्रवृति है।
हम मिलें नहीं हैं बहुत लोगों से-बहुत सारे जीवन हमने देखे नहीं हैं।
जब पंजाब के मलोट के कान्वेंट की एक स्कूली लड़की को अपने रुमाल से सर ढके देखा तो लगा उसके लिए अक्षरधाम गुजराती शिल्प या कोई पर्यटन स्थल नहीं गुरुद्वारा साहिब है। जब बिना किसी "दान देने के परोक्ष इशारे" के लोगों को हर पानी के कुंड में या किसी भी जगह छोटे पैसे फैंकते देखा तो लगा, इनके लिए यही हिन्दू मंदिर है। जब कान्वेंट की सिस्टर को, ठेठ पंजाबी बोलते बच्चों को साथ रखते- समझते समझाते पाया तो अच्छा लगा।
जब किश्ती-जो मशीनी थी- में बैठकर पतंजली-प्रताप-अशोक-चरक-आर्यभट-राम-अर्जुन-किशन-नानक-भरतमुनि और सभी पुरातन पुरोधा देखे तो भारतीयता की परिपक्वता समझ आई।
सुबह खबर देख के गया था के मिस्र में 500 मरे-भारत को गिरकर उठना आता है, यही महसूस हुआ।
किसी का युवासक्ति (शक्ति) पे किया कटाक्ष समझ आया....के अपने देश से गोबर अगर विदेश जाकर 'पैक' हो कर आ जाए तो ये उसे 'ब्राउनी' कह देंगे।
मज़ाक तो था-उतने बुरे भी नहीं हैं-पर पहले अपना देश जान तो लें-इसे निलंबित करके भागते क्यूँ हैं।
किसी बहाने से सही-महंगी टिकट-लम्बी कतार-बिना चमड़े की बेल्ट-पर्स के सही-अपने 'क्लिक मी वन्स' आनंद के बिना सही,
हम कुछ साथ जाकर देख तो रहें हैं।
दर्शनीय स्थल इसलिए दर्शनीय नहीं होते कि वो किसी संप्रदाय ने बनाये हैं और बहुत आलिशान या साधारण बनायें हैं; बल्कि, वहां एकत्र हुआ जीवन दर्शन योग्य होता है।
और आप खुद को-स्वयं को-अपने आप को- जीवित पाकर खुश होते हैं।
अपने जीवन के शिल्पकार आप स्वयं हैं। कैसे घड़ना है-कितना तराशना है-कितना तोड़ना है-कितना जोड़ना है
सब आपको देखना है।
पत्थर का ज़मीन के पास रहना सच में ज़रूरी होता है।
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