चार पंक्तियाँ: अर्थात: ""चाप""

चार पंक्तियाँ: अर्थात: ""चाप""

प्रथम प्रस्तुत है...

पन्ने-पन्ने नाम तुम्हारा
पढ़ना-सुनना
लिखना-कहना
यही तो है बस काम हमारा!

प्रस्तुत है- चाप 2

आओ मैं लिखूं तुम्हारी बातें
आज की बात यही है
कविता इस से अच्छी और भला क्या होगी
वो बात जो मैंने सुनी-और तुमने कही है।

चार पंक्तियाँ: चाप 3

अधपकी नींद-अनबनी ईमारत सी चरमराती है
ये देख इस ख्व़ाब की लकीरें उस ख़्वाब तक जाती हैं।
धुंधली रौशनी में इतना तो असर ज़रूर होता है
आँखे जो इक साथ खुली हों - जुगनू सी जगमगाती हैं।


चाप 04

तुम लौटो तो ज़रा उस कोने में
दीवारें मिलती हैं जहां साथ साथ.
हम अपनों से बतियाते हैं यहीं
सकुचाते भी तो हैं हम सिर्फ किसी कोने में!

Comments

Popular posts from this blog

Taar nukiley hotey hain

घूर के देखता हैं चाँद

किसी को दिखता नहीं, इसका मतलब ये तो नहीं कि मैं हूँ ही नहीं!