निचोड़ा हुआ सा मन और मन में गूँजती हुई आवाज़ें

दिनों दिन
महीने और बरस-दर-बरस
इक तारा बन के गूँजते
बजते रहना और
सम्मोहन को नाम देना प्यार का
निभाते रहना और फिर
एक दिन
खींच लेना हाथ
.... खाली हाथ-सामने वाली हथेली ही जब
खामोश है अबके
तो मेरी अंधी उँगलियाँ भला किसको थामें।

तो भला कौन सा त्योहार-अबकी बार।
ये कहानी है दोस्त किरदार बदलते हैं-
कथानक तो वही रहता है।
अजब होगा वो भी खेला जब
हाथी से खाली हुई जगह को भरा जाएगा
उसकी अनुपस्थिति से।

इक तारा कैसा साज है...
एकला भी कितना सहज है- भीड़ में भी कितना सरल।
देखें ज़रा ज़िद्द करें हम भी।
मंच के पीछे बहुत कुछ होता है कथानक में नहीं
पात्रों के जीवन में-
जीया जाये चलो उन्हीं पुराने दिनों को।
इक तारा गूँजता रहे बस।
सहज-सरल।


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