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Showing posts from 2012

कितना अच्छा हो.....

कुछ शरारत सूझी है....कुछ बहुत दिनों बाद... कुछ कुछ तुम भी पढ़ लो... कोने का कैबिन जागा है... कुछ टुकड़े टूटे तुम्हारे बालों के मेरे घर मिल जाएँ तो... मेरे घर के शीशे पे तू अपनी इक सुर्ख़-सी बिंदी चिपकाए तो पहरों जाग-जाग के मुझको ... सारी-सबकी बात बताए तो अटक-अटक, भटक-भटक के, कुछ किस्से भूल भी जाये तो... एक अचानक- बीच बात में मुझे तू कुछ भी याद दिलाये तो... देख मुझे सटी चौखट से तू मद्धम-मद्धम मुसकाए तो घर का चौका तेरा हो और हम मिलकर कुछ बनायें तो... मैं तुम्हारा आधार बनूँ और तू मुझपे इठलाये तो... रंग-बिरंगी सब रंगों की हर रंगोली सजाएँ तो मैं जब लिखूँ मन की बातें तू ही मुझे सराहे तो... गीत चुनें हम सांझे-सुंदर और मिलकर उन्हें गायें तो बचपन में लौटें साथी बनकर तू ख़ूब मुझे हसाए तो .............. तो भला-और-भला....क्या हो... तू मुझे बताये तो... कितना अच्छा हो तू मुझे मिल जाये तो!!!

अब कोई छोटा नहीं रहा ना...

तुम बड़ी-बड़ी बातें किया करते मैं छोटी-छोटी बातें करता था... बातों में भला ये भेद- कैसा ? टकराता था बड़प्पन कभी मुझसे तो और छोटा हो जाता था और इसी उम्मीद में कि एक दिन हम बराबर हो जाएँगे- सब अपना लिया जाता था! किसी एक क्षण में तुम भी क्षीण होते थे और मैं भी... और कोई भी नहीं होता था! तभी शायद बोध होता हमारे अपनेपन को बड़प्पन का और हम ठहाके लगाते थे , उन्हीं लड़कपन की बातों पर। परिपक्व होना अपने भूत की ओर दोनों आँखों से देखना ही होता है शायद , बिना किसी डर के! आज फिर , हम उसी बहस में उलझें हैं कोई तरतीब नहीं- बस बड़ी बड़ी बातें अब दोनों करते हैं अब कोई छोटा नहीं रहा ना॥

एकटक आती है याद तुम्हारी....

अक्सर तुम्हारा याद आना-आमतौर पे याद याद आने से हल्का-सा अलग होता है.... ज़रूरी बातें गैर-ज़रूरी लगने लगती हैं-ख़ुद से ख़लिश जागती है... कोई तस्वीर ढूँढने निकलता हूँ-तस्वीर भागती है... रंगों में कुछ अनबन होती है-एक दूसरे पे उड़ेलने लगते हैं-एक दूसरे को... कोई इधर भागता है-कोई उधर ताकता है-कुछ छुप जाते हैं- तुम्हारे आने की उम्मीद में- के तुम आओगे तो तरतीब दोगे कतार को- तुम आओगे तो आईना साफ़ किया जायेगा- तुम आओगे तो उदासी को अलविदा कहा जायेगा... बादलों को मनाया जायेगा-ना भी माने तो तुम- खिड़की बंद कर दोगे... झट-से... एकटक आती है याद तुम्हारी और धप्पा देती है मुझे...

बस यही कहना था के एक तुम्हारे होने से.....

एक तुम्हारे होने से संकोच मिटता है मेरा... सवालों से विचलित नहीं होता हूँ मैं... बेवक़्त बादल बरस भी जाएँ तो भीगने का अफ़सोस नहीं होने देते हो तुम... कोई छुपा ले कुछ या कह दे कुछ बुरा... आपा नहीं खोने देते हो तुम... तुम्हारे होने से हर कागज़ का अर्थ अब समझ आता है... तुम्हारे मुस्कुराने से ही जीवन को स्वीकारता हूँ मैं... कितनी संतुष्टि से हर ओर निहारता हूँ मैं ! मुझे भय नहीं आता अब - ना मुझे ठोकर लगती है... तुम होते हो ना मेरा हाथ थामने को, बिल्कुल पास मेरे - साथ मेरे। कितनी आसानी से मिठास घोल देते हो तुम किसी भी फीकी शाम में... कितने अपनेपन से बचपन ले आते हो मेरे आँगन में... अपनी कलाई में चाँद पहन कर जब खिलखिलाते हो तो सब सुंदर लगता है... सब कुछ अपना-सा लगने लगता है साथ तुम्हारे... आइने में अपना अंश छोड़ जाते हो मुझे रंग बिरंगे रंग सिखाते हो... सात सुर समझाते हो... और मेरी ग़लतियों पे मद्धम - मद्धम मुस्कुराते हो... हर बार मेरा ही होंसला बढ़ाते हो !!! तुम नहीं होते हो तो अंधेरा सा लगता है रोशनी में... अभाव आता है हर बरकत में लिपट कर... घर की ओर जाती सीढ़ियाँ ख़त्म ही नहीं होती, सच में

"Loodo"

kuchh dur hai.. phir thodi dur nahin hai... aur phir halki si hai.. jhmajham bhi hai.. kahin kahin paani paani kar gayi.. aur kahin..khidki ke raaste chehre bheego rahi hai.. kuchh pal ke liye suraj pe ahsaan karke mukar bhi gayi ek jagah.. aaj Baarish ji bhar ke "Loodo" khel rahi hai... :-)

andaaz badlaa hai.. aakaar nahin...

krishan ki dharti... pe rehne waalo se prem ki baat kehna... varnmaalaa ko dohraanaa lagta hai. lagta hai jaise Sadiyon puraane..mantr boley jaa rahe hain. par har baar ek naya rang mehsus hota gai. na to raadha badli hai na Meera ne smjhna seekha hai aur na Kishan ko koi smjh paya hai. haan..par hum pyaar pe.. love pe.. ishq pe.. discussion karne lagey hain.. andaaz badlaa hai.. aakaar nahin.... hum badley hain.. Pyaar nahin.

Yey kaisey log hain

""Yey kaisey log hain Kaunsa mulk hai ye.. kisne likhi hai taarikh iis zamin ki... kisne mitaayi hai Dhundhli lakiren... kaun likhne baith jaata hai..mere bhitar... aur nikaal baahar karta hai ankahi ... khud se baat karke uthh padta hai mann mera.. aur main mann ki kehne lagta hoon.. aur shikaayat kar dete hain... kaise log hain... mere apne hain kyaaa !!!!"

Sidhey se pooch raha hoon..

Tum barsogey kya Socha sidha hi poochh loon.. Pyaar me adhikaar aur takraar Dono jaayaz hain. Meri tumhaari to wahi baat hai ab bhi... Chaatak aur baadal.. Kitni chhMaahiyaan katt chuki hain.. Apni begaani har mitti dekh chukey ho.. Ab to lauta do wo adhikaar.. Takraar karne ka... Kab tak banaane honge madhyam..kab tak her feir karwaoge shbdon ka.. Sidhey se pooch raha hoon..

RANDOM...

Kitna kuchh hai bahla kehne ko jaise kuchh bhi nahin hai bhala kiske paas hai jo kehna hai tumse bhala kitna kuch hai kehne ko.......ke tarteeb se sochna bhi mushkil sa legta hai... ये भी इक हुनर है के तू रहे हुनरमंदों के बीच.... और ख़बर किसी को ना हो तेरे हुनर की !

मुल्क कभी मतलबी नहीं होता!

तुम दोस्त हो मेरे नाम कई सारे हैं तुम्हारे ... कितनी सारी पहचान हैं और कितने रंग कितना पुराना साथ है कितने रास्ते तुम तक आने के लौटने की वजह ही नहीं... बस साथ रहने भर का आदेश देते हो तुम। तुम्हारी बारिश कितनी अपनी है और कितने   अपने हो तुम। जब भी गले लगने की ललक होती है तुम्हें निहार लेता हूँ... अपने आगोश में लेते हो मुझे मेरे पक्कम-पक्के दोस्त बनकर। कितना सच है ना मुल्क कभी मतलबी नहीं होता!

सुबह-सुबह तो दिन था....

रित रहा है धीरे-धीरे आसमां खाली हो रहें हैं देखो तारे... छिपती फिर रही है कहीं हवा और देखो आज तो अंधेरा भी सहमा-सहमा सा है! ये भला कौन सा दिन है-किसके नाम की घड़ी है ये... कौन सा पहर है... सुबह-सुबह तो दिन था.... दोपहर थी- शाम भी हुई... अब रात है.... और सुनो..... आगे सहर है !
एक रूमानी सपना तुम्हारे संग... तुम्हारे बिना जब भी देखा है रंग भरे हैं तुमने... सपनों में आकर और भरते गये हो। कितने इंद्रधनुष हैं अब रात में मेरी!!!! सारा घना आसमां जैसे अटा पड़ा है............... .............................. अधूरी कविता.....

मुस्कुरा दो...

मुस्कुरा दो... के बदली नहीं है आसमां में कोई... अब जादूगर हो तो जादू करते रहा करो।

सब गीली मिट्टी से ही रचता है

खुशियाँ काफ़ूर होती देखीं हैं बनते देखा है सपनों को..... ईंट हो या स्वप्न भाव हो या अपनापन सब गीली मिट्टी से ही रचता है। और बरसात इसीलिए होती है शायद!

रिश्तों की बनावट

रिश्तों की बनावट लिखावट और बुनावट.... समझने में बीत जाती हैं कितनी घड़ियाँ कितने पहर कितने पल और रास्ते बादल-बादल के यूँ... आना-जाना लगा रहता है। पहेलियों की इस बारहखड़ी में नाजाने कहाँ से अक्सर आ जाते हैं... कहाँ से मतलब..... और मैं.... उलझ जाता हूँ उलझा रहता हूँ कब तक सब तक

आओ कुछ और बात करें

साथी! आओ कुछ और बात करें... रिते हुए इस आँगन को फिर से भरें।   सजा लें रंगों की भीनी - भीनी ख़ुशबू.... मुस्कान में आज कुछ ख़ास रंग भरें।

आ जाना के तुम भी, इस बार की बारिश में घर में कुछ तो नया होगा दिखाने को॥

नयी बारिश में भी याद करता है मौसम पुराने को॥ कुछ तो नया कहदे - नयी महफ़िल में सुनाने को॥   आहट सावन की तुमसे कितनी मिलती-जुलती है तुम्हारी तरह , बड़ा अज़ीज़ है , ये भी ज़माने को॥ हर मौसम की दावत में ये ज़रूर शरीक होता है अजब रंग रखता है आसमां , हमें लुभाने को॥ आ जाना के तुम भी , इस बार की बारिश में घर में कुछ तो नया होगा दिखाने को॥ ‘ शिख़र ’ हमने तो ख़ुद को कुछ भी कहना कम किया , क्या जल्दी है भला , उम्र पड़ी है सारी कमाने को॥

अब भला दिन है क्या और धूप है क्या.

बोलता है तो पता लगता है ज़ख्म उसका भी नया लगता है। सुनता नहीं है जब वो कोई बात मेरी , ख़ुदा कसम -बिलकुल-ख़ुदा लगता है। मुहब्बतों की परख ना जाने कौन करे ? दावा-ए-उल्फ़त हो गया हवा... लगता है। मैं तुमसे कुछ पूछूं और तुम खामोश रहो ! ऐसा तो-सच कहूँ- ख्वाब भी सज़ा लगता है। अब भला दिन है क्या और धूप है क्या... ?! चल ' शिख़र ' काम पे चल- सूरज चढ़ा लगता है।

अच्छे साथियों का साथ तो... सबको ही अच्छा लगता है।

दो ज़बानें अलग अलग तौर-तरीके अपने अपने ढंग जीने के मरने के। बातों में छुपे मतलब भी भिन्न-भिन्न कागज़ अलग-वर्ण और शब्द भी अलग। नाम भी एक जैसा नहीं... और दाम भी नहीं एक सा..... फिर भला इतना अपनापन.... कहाँ बोया- कहाँ से उग आया है ये... इतनी हथेलियों का साथ.... जैसे मेरी किसी भी कमज़ोर लकीर को तुरंत नया- सार्थक विकल्प देने को आतुर मेरे इतने अपने... हैं। अच्छा लगता है। अच्छे साथियों का साथ तो... सबको ही अच्छा लगता है।

एक शब्द कहीं से मिला....

सीप की तलाश में भला मैदान वाले किधर जायें॥ .... मोतियों की तो खरीददारी संभव है पर जनक उनका फिर भी दूर हमसे... और हम दंभ भरते हैं... विकास का...

कितने भी रंग सजा लूँ...

तुम्हारे ना होने की भरपाई कहाँ कर सकता है कुछ... कितने भी रंग सजा लूँ... एक तुम्हारे रंग बिना ये पूरा इंद्रधनुष धूमिल सा लगता है... फीका लगता तो मैं रंग और भर देता!!! तर्क-वितर्क , प्रश्न-उत्तर , सब विवश हैं... बिन बताये चुप हुए हो- देखो मौसम से शिकायत है मुझे रूठा हूँ मैं हवाओं से और अपनी कविताओं से तुम्हें कुछ बुरा लगा होगा... या बहुत अच्छा नहीं लगा होगा कुछ मेरा कहा... वही रंग बता दो मुझे- मैं निकाल दूँ उसे अपने बीच से और पा लूँ वही इंद्रधनुष साथ का॥ जिसमें भरोसा तो है- समझ तो है साथ तो है!!!

मैं वही चारदीवारी हूँ...! तुम्हारी अपनी...

मैं वही चारदीवारी हूँ...! तुम्हारी अपनी... पहली , मैं वो दीवार हूँ जिसमें दरवाज़ा है अधखुला - सा एक... उसके पीछे छिपे हैं कितने जीवन- कितने दिन-और शाम तुम्हारी। रंग है फीका मेरा लेकिन आना-जाना घना रहा है॥ तुम्हारा सिरहाना देखो बनता था उस ओर... जागे-सोये कितनी रातें कितनी-कितनी...बहुत हैं बातें! कितने सपने... कितने सांझे और कितने अपने... जब बैचेन होते , तो सिरहाने से मुँह फेर के सोते थे तुम ! तीसरी ओर देखो आकर... ये दीवार है फिर भी- खिड़की सी कहलाती है... अपनी सी हवाएँ....ख़ुशबू....गर्मी-सर्दी हर मौसम यहीं से आती हैं। तुमसे बातें करते-करते देखो टोक रहे हैं मुझे कोने अभी.... कहते हैं हममें जुड़ती है दीवारें... हमें भी करने दो बातें तुमसे! ........... ये जो चौथी दीवार है अपनी... इस पर पीठ सटाकर तुम घंटों बैठा करते थे.... बतियाते थे किसी अपने से !!! जब-जब साथी नाराज़ हुआ तो मुझको देखा करते थे... मुझ पर कितनी बातें लिखते... और हटाया करते तुम !! रूठे नहीं देखा तुम्हें कभी.... मगर उसे बहुत मनाया करते तुम॥ ................ म

ये वापसी का सफ़र

ये वापसी का सफ़र बेशक मांगा था कभी... पर—आज ना दे मुझे! मैं वापस लेता हूँ वो दुआ अपनी ....! अब कितनी यादें हैं मुझे रोकने को। क्या पता कैसी ये हालत है मन की आज ??? देखा था मैंने बहुतों को जाते हुए इस गुलिस्ताँ से... मगर..... आज मुझे जाना है....!!!!!! कैसे रितकर जाते थे वो साथी मेरे... कैसे करते थे कोशिश... जल्दी-जल्दी सामान समेटने की... हर वो सजाई हुई बात.... वो चीज़ें... कैसे उठाऊँ भला.... !!!! देखो !!!! मुझसे नहीं उतर रहा ये कागज़ दीवार से..... देखो , वहाँ ऊपर हाथ नहीं पहुँच रहा मेरा.... हाथ बटाओ मेरा॥ मेरे दोस्त॥ साथी॥ कितना मुश्किल है तुमसे अलग होना... मैं खाली होता हूँ सफ़र में आज.... ...... सोचता हूँ..... जब पहुंचुंगा घर की दहलीज़ पर तो खाली हो चुका होऊँगा तब तक!!!

तुमसे कुछ-कुछ कहा... मगर कितना कुछ रहा॥

बहुत सी बातें तो सिर्फ ख्यालों में ही रह  गईं... ना तुम तक पहुंची-ना कही गयी मुझसे! कितनी बार सुबह उठते ही जगाया है साथ तुम्हें और गया हूँ साथ-साथ टहलने। कई बार टकराईं हैं कोहनियाँ हमारी   और सकुचाये हो तुम , और मैं भी। कितनी बार मैंने कहा तुमसे कि मेरे साथ रहो। कितनी बार तुम्हें देखकर उदास , मैंने रखी है अपनी हथेली तुम्हारी उँगलियों पर। कई-कई बार घनी धूप से तुम्हें ढांपने को तुम्हारे और सूरज के बीच आया हूँ मैं। सब हुआ है ये- हमारे तुम्हारे बीच पर सिर्फ़ ख्यालों में सिमटा है ।   एहसास तो अब भी उतना ही जीवंत हैं मुझे...   तुम्हारे स्पर्श का। कभी कह नहीं पाया के तुम्हारी और मेरी हथेली में कुछ लकीरें एक जैसी दिखती हैं। तुम्हारा लहज़ा मुझ सा लगता है कभी कभार॥ कुछ भी तो नहीं कहा तुमसे ना तुम बोले कितने ख्याल रहें हैं बिन कहे... कितने दरबान बैठाये हैं एक दहलीज़ पर  हमने... ना तुमने इन्हें जाने को कहा- ना मेरी जुर्रत हुई। तुमसे कुछ-कुछ कहा... मगर कितना कुछ रहा॥