तुमसे कुछ-कुछ कहा... मगर कितना कुछ रहा॥

बहुत सी बातें तो सिर्फ ख्यालों में ही रह  गईं...
ना तुम तक पहुंची-ना कही गयी मुझसे!
कितनी बार सुबह उठते ही जगाया है साथ तुम्हें और
गया हूँ साथ-साथ टहलने।
कई बार टकराईं हैं कोहनियाँ हमारी 
और सकुचाये हो तुम,
और मैं भी।
कितनी बार मैंने कहा तुमसे कि
मेरे साथ रहो।
कितनी बार तुम्हें देखकर उदास, मैंने
रखी है अपनी हथेली तुम्हारी उँगलियों पर।
कई-कई बार घनी धूप से तुम्हें ढांपने को
तुम्हारे और सूरज के बीच आया हूँ मैं।
सब हुआ है ये- हमारे तुम्हारे बीच
पर सिर्फ़ ख्यालों में सिमटा है ।
 एहसास तो अब भी उतना ही जीवंत हैं मुझे... 
तुम्हारे स्पर्श का।
कभी कह नहीं पाया के तुम्हारी और मेरी हथेली में
कुछ लकीरें एक जैसी दिखती हैं।
तुम्हारा लहज़ा मुझ सा लगता है
कभी कभार॥

कुछ भी तो नहीं कहा तुमसे
ना तुम बोले

कितने ख्याल रहें हैं बिन कहे...
कितने दरबान बैठाये हैं एक दहलीज़ पर  हमने...
ना तुमने इन्हें जाने को कहा- ना मेरी जुर्रत हुई।

तुमसे कुछ-कुछ कहा...
मगर कितना कुछ रहा॥

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