मैं वही चारदीवारी हूँ...! तुम्हारी अपनी...
मैं वही चारदीवारी
हूँ...!
तुम्हारी अपनी...
पहली, मैं वो दीवार हूँ जिसमें दरवाज़ा है अधखुला-सा एक...
उसके पीछे छिपे हैं
कितने जीवन- कितने दिन-और शाम तुम्हारी।
रंग है फीका मेरा लेकिन
आना-जाना घना रहा है॥
तुम्हारा सिरहाना देखो
बनता था उस ओर...
जागे-सोये कितनी रातें
कितनी-कितनी...बहुत
हैं बातें!
कितने सपने...
कितने सांझे और कितने अपने...
जब बैचेन होते, तो सिरहाने से मुँह फेर के सोते थे तुम !
तीसरी ओर देखो आकर...
ये दीवार है फिर भी-
खिड़की सी कहलाती है...
अपनी सी
हवाएँ....ख़ुशबू....गर्मी-सर्दी
हर मौसम यहीं से आती
हैं।
तुमसे बातें करते-करते
देखो
टोक रहे हैं मुझे कोने
अभी....
कहते हैं हममें जुड़ती
है दीवारें...
हमें भी करने दो बातें तुमसे!
...........
ये जो चौथी दीवार है
अपनी...
इस पर पीठ सटाकर तुम
घंटों बैठा करते थे....
बतियाते थे किसी अपने
से !!!
जब-जब साथी नाराज़ हुआ तो
मुझको देखा करते थे...
मुझ पर कितनी बातें
लिखते...
और हटाया करते तुम !!
रूठे नहीं देखा तुम्हें
कभी....
मगर उसे बहुत मनाया करते
तुम॥
................
मैं वही चारदीवारी हूँ!
अब दस्तक, ना दरवाजे पर है.... आहट कोई दहलीज़ नहीं...
ले तो गए हो चीज़ें
चुनकर...
पर कितना कुछ तुम भूले
यहीं....
आओगे कभी तो वैसा ही
तुम पाओगे दीवारों को...
कोई-कोई तो खरोंच
पुरानी शायद दिख भी जाएगी!!!
भला कौन कहेगा अब मुझको
अपना.....
कौन भला अब सहलायेगा तन्हाई मेरी?
अपने शहर गए हो तुम... मैंने
सुना था कान लगाकर...
हमें ले जाते तो साथ निभाते...
इठलाते-मनाते...
चलो---- कोई बात नहीं....
मैं तो यहीं... चारदीवारी
हूँ....
‘आज भी तुम्हारी हूँ!’
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