अब इन्हें छूकर नहीं जलेंगी मेरी उँगलियाँ...



पानी में भीगा था जब
वो काग़ज़ का टुकड़ा...
सब रंग एक हो गए थे
जैसे स्याही ने समझोता कर लिया हो
कलम से नहीं....
काग़ज़ से भी नहीं.....
बल्कि...
उन रंगो से- जो छुपे हुए थे
अरसे से उस काग़ज़ में
जो अभी-अभी भीगा था बारिश में।
शब्द ऐसे बह रहे थे जैसे
मोतियों की माला से
मोती बहते हैं !
एक के बाद एक !!!
मैं किस-किस को थामने जाऊँ !?!
भय आता है कभी-कभी तो...
याद दिलाता है वो बारिश
जब इसी तरह भागे थे रिश्ते मुझसे....!
.............
आज तुम हो तो तसल्ली है। 
मैं चुन सकता हूँ ये बिखरे हुए काग़ज़ के टुकड़े...
और अब... 
इन्हें छूकर
नहीं जलेंगी मेरी उँगलियाँ... । 

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