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Showing posts from 2014

पहली बार आज सुबह...

पहली बार आज सुबह... हर रोज़ की तरह दफ़्तरी भाग-दौड़ थी कुछ नया ना भी होता तो कुछ अचम्भा न था... पता-सा था कि जाना है दफ़्तर सड़क रास्ते-सड़क बनकर। रोज़ का आना जाना ऐसा है के जैसे मेरे और उस कंकरीट संसार के बीच मैं ही सड़क बन गया हूँ। खैर... आज की सुबह अलग हुई कैसे भला... देर तक खेला-की बातें मैंने उस से और उसने जवाब भी दिए सब सही और सटीक जवाब। स्वर आते हैं सारे उसे। और मुझे वो संगीत लगता है। गोद में लिया सीधे हाथ तरफ और काँधे लगाया वाम हस्त थपकी दोनों जोड़ी आँखों का मिलना मद्धम मद्धम सी नींद झुकती पलकों में प्यार और फिर उसने अपना मुझ-सा चेहरा रखा मेरे काँधे नन्ही हथेली से थामा मुझे और पहली-सी बार मुझे गले लगाया... सो गया-मीठी मीठी नीनि! ...और समझाया कि प्यार-अपनत्व-हमारा रिश्ता कितना दैवीय है। :एकलव्य के लिए!

शहर को ज़िंदा करें कैसे...

कोई अगर शहर ज़िंदा करने निकले तो कहाँ-कहाँ सांस फूंकने पड़ेंगे? जवाब नहीं मांग रहा मैं मुझे तो पता है कि पता है तुम्हें। मिलकर ही तो दम घोटा है शहर का। कभी क़स्बा रहा होगा उस से भी पहले गावँ और उस से भी पहले ज़मीन हुई होगी। ज़मीन जिसे पता नहीं था कि बंटेगी मात्र नहीं ढकी भी जायेगी और छिनी जायेगी। शहर ज़िंदा करने निकलो तो दरख़्त ज़िंदा करने पड़ेंगे पर कैसे करोगे दरख़्त कहाँ हैं अब हज़ारों कस्बों नें आकर शहर को ढक दिया है छुपा दिया है दरख़्तों को। कुछ जो नज़र आते भी हैं कृत्रिम-समर्पित संग्रहालय हैं बस। सड़क के किनारे चौराहों पे भी भला कभी पेड़ जीते हैं। जो हैं हरे-वो हैं डरे नहीं डरेंगे तो फेंक दिए जाएंगे। शहर में ज़मीन-पेड़ों के अलावा रिश्ते-इंसान भी मरा है। और इनकी चिकित्सा संभव नहीं। जिसको ठीक करना है वही तो गुनाहगार है। ख़ुद को सज़ा देगा नहीं। तो भला शहर को ज़िंदा करें कैसे...

बुरा नहीं होता फ़ेसबुक पर दर्ज़ होना सचमुच... बुरा नहीं होता।

बुरा नहीं हैं फेसबुक पर दर्ज़ होना पुराने-जीवंत जीवन को फिर से संजो लेना पुराने जिगरी दोस्तों को ढूंढ कर। बुरा नहीं है मन की बात कहना और सूचित रहना-जागरूक रहना। बिना पुछे मित्रों का कुशल-क्षेम जान लेना... बुरा नहीं है बधाई देना- बिना बोले स्वयं लिख देना दीवार पर भाव अपने और निश्चिंत हो जाना कि संबंध संभाल लिया है मैंने! बुरा नहीं हैं... छोटे शहर से आकर बड़े शहर में बस जाना। किराये के मकान को घर के वहम में रंग देना और अनमने मन से मन लगा लेना हर चीज़ में। दौड़-भाग-भागम-भाग में दौड़ते रहना और मशीन की भांति आराम-अवकाश के लिए कराहना। बुरा नहीं है बिलकुल भी आधुनिक होने का ढोंग करना और बाज़ारी सजावट में जाकर त्योहार ख़रीदना। बुरा तो नहीं हैं अपने गाँव को याद रखना या के बुरा है... दिये की भांति टिमटिमाना आस-पास अंधेरे के। भीड़ भरे जंगल में जहां सड़कें वहीं रहती हैं - बस शरीर दौड़ते हैं-अंधाधुंध सुबह को इसलिए कि शाम तक लौट कर आना है और शाम को इसलिए कि सुबह... एक गली भर मुल्क बनाकर एक मकान का एक तल... उसकी पर सब... ओ हुसना... ओ गुलाल... ओ जंगम-जोगी ओ री गऊ दहलीज़ तक आने वाली... बुरा नहीं होता है कमाना...

शब्द ज़रा मेहनत करने से ही सधते हैं।

शब्द ज़रा मेहनत करने से ही सधते हैं। (ये प्रेरणा पंक्ति Dinesh Dadhichi जी से) तभी तो हम करते हैं साधना शबदों से। सत्यम भी तो शब्द ही हैं होते और शिव की सुन्दरता भी शब्द। जब हमें शब्द नहीं मिलते तो कितना कुछ अधुरा रह जाता है। और शब्द निठ्ठले हो जाएं अगर तो बिगड़े हुए बेटे के निसहाय पिता सा अफ़सोस हो जाता है। जब श्रवण होते हैं शब्द तो हमारी आँखे बन हमें जीवन तीर्थ करवाते हैं। वाणी की शक्ति शब्द पर्याय बना देते हैं असहाय के भी। बरस कर भर देते हैं रिश्तों में मिठास और खाली बरसे तो देते ही हैं खटास। रास्ता बनाते हैं दीवारों से मिलवाते हैं सांझे सरोकारों से। और दिल से दिल तक कह जाते है मुहब्बत चुप वाले चुप ही रह जाते हैं। कितनी बार पिरोते हैं मोतियों की भांति कभी- कभी यूँ ही बिखेर देते हैं आँगन में- बच्चे के कंचों की तरह। पटक भी देते हैं और संजो भी लेते हैं अपने-अपनों के लिए। मुझ-से कितनों की रोटी आती है शब्दों से ही। कितना कुछ करते हैं देखो शब्द... तभी तो कहा... शब्द ज़रा मेहनत करने से ही सधते हैं।

My Favourite Reading: Jonathan Livingston Seagull

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...पर शब्दों परे की बात कही नहीं जाती।

शब्दों से परे की बात है जो मेरे लिए वो तू अपनी नर्म मुठ्ठी में दबाये बैठा है। मेरी हथेली में शब्द मेरे भाग्य के पिरोये जाता है तू। तू युग सौंपता है और ज़रा सा भी दंभ नहीं। अहि सही कहते के सत्य तो वही जिसका संकेत तुम करो ये बचपना अनजान नहीं सब जानता है। मानवीय नहीं बस दैविक सब। तुहारी पलकें-आँखें मध्धम-मध्धम बोलना बुलबुलों से और हमारा जीवन दिखा देना हमें। तेरी मुट्ठी का जादू देख मेरे सर चढ़ बोलता है। पर शब्दों परे की बात कही नहीं जाती।

ये पल तुम्हारा है।

ये पल तुम्हारा है। कान्हा ! झूमते-झूलते निहारते-किलकारते इठलाते-सकुचाते रोते-मुस्कुराते सब तुम्हारा है। माखन और दुलार सरल और श्रृंगार पूर्णता-और सार... ओ मेरे करतार... सब तुम्हारा है। गोद में अँगड़ाई अँखमीच जम्हाई कमर की तागड़ी गले के चाँद-फूल रात को जागना अपना समय माँगना बतियाना-जीवन सिखाना। अब तो सब तुम्हारा है। कान्हा! देखो तुम्हें बहाना बना कर हम अपने प्रेम की उपासना करते हैं। शब्दों से परे हो तुम। परिभाषा से परे कोष-संकोच से दूर। कहाँ कही जाती है बातें तुम्हारी।

For Eklavya- on EklavyaParv 07 August

शब्दों से परे कितना कुछ होता है अहसास होता है आभास रहता है और फिर एक दिन आपका बचपन आपकी गोद में आ आपको बाँध देता है। आप उसी की मुस्कराहट में मुस्कुराते हो। वही आपके सपनों को जीवंत करता है। शब्दों में नहीं कही जाती कुछ खुशियाँ हाँ बस बाँट ली जाती हैं। मैं जब छू रहा अपने आप को अपनी बाहों में और अचंभित हो रहा हूँ जीवन कितने अच्छे से पिरोया है उसने और नन्हे-नन्हे हाथों में समेट दिया है संसार मेरा। शब्दों से परे है पापा-मम्मा कहने वाले का आना। हाँ, ख़ुशियों मेरी-हमारी मैं कह रहा हूँ। स्वातिपर्व और हमारा एकलव्य आया है आज।

तुम मेरे आप हो... आप मेरे गुरु हो!

Respect and Love To All My Teachers.... From the Teachers of Guru Nanak Public School to Govt Senior Secondary School to K.T. Govt College Ratia... From UTD English to University College of Education... From Lather Sir's KUK and M.M. Polytechnic to My Students at Amity University... From my Parents to My Life Companion and Son... From Each One of YOU to Me... It is All Learning that has Happened to me! Parveen could not have been more better than this! I bow my head to my Teachers and Express my gratitude to them! If I can ever deliver a small portion of learning like them....as they did..have been doing..I shall feel fortunate! Being a Student, I can never surpass the Masters and that makes me feel more blessed! ....................................................................................................................... शब्दों को दोहराने की आज़ादी दे भी दो मुझे तुम तो तुम्हारे लाख कहने पर भी मैं कैसे लिखूं-कहूँ तुम्हारे बारे में कुछ! लाख पढ़ा-लिखा हूँ मैं मेरे मानस की र

कथा भाव से मिले और भाव मिले कथा से।

कहो तो अगर बढाऊं आगे मैं दहलीज़ लफ्जों की कथा भाव से मिले और भाव मिले कथा से। और ये देखो ज़रा तुम्हारे हामी भरते ही किलकारियां लगी हैं खिलने और खुशबुएँ गूँजने लगी हैं मेरी-तुम्हारी-हमारी ओर। और ये आभास कितना अद्भूत है मिलन का। कभी सुनहरी-तो कभी सुर्ख़ कभी सुंदर तो कभी सुंदर से भी सुंदर। कितनी कल्पनाएँ कर लीं हैं हमने और सांझी ख़ुशी दे दी है हर आरोहण को-कथा को। सपने इतने सुंदर कभी ना थे अहसास-आभास तुममें मेरे होने का मेरे लिए जीवन से भी सुंदर है। : मद्धम मद्धम आँखें खुलना ख्व़ाब में भी तुम रहे और ख्व़ाब के बढ़ने बाद भी तुम ही सामने। तुमसे आती सर्द-गर्म साँसे और मुस्कुराहटें अनगिनत मुझसे मिलती हैं जैसे मैं कोई फूल अधखिला सा और तुम सुनहरी सुबह की रोशनी बनकर मुझे पूर्ण करते हो जीवन अपना मैंने तो न सोचा था ख़ुद ही कल्पना मैंने तो ना की थी अपने लिए पर जिसने भी मेरा ये जीवन बुना है कितना अच्छा है के मेरे लिए साथी तुम्हें चुना है।

देखें हम सारे ... सर्दियों की धूप

हल्की ख़ुश पहली सी प्यारी अनोखी मुझ सी तुम सी सब सी बचपन भरी एकदम खरी ज़मीन पे आती सबको भाती दूर बहुत ही दूर की रहने वाली मद्धम मद्धम कहने वाली हर मौसम में आये जो हर मौसम लजाये जो कभी पकाती कभी सुखाती कभी जलाती और कभी बुझाती दिन को ये ही लाये हम तक हाँ- सच में सब तक-हम तक दहलीज पे आती दिवार पे चढ़ती आंगन में खेले बन जाते रेले नहीं आती तो ठिठुरन भी होती आ जाती टीओ बैठक जमती गाँव-देहात से शहरों तक दिन-दिन और पहरों तक जुड़ी हुई है सबसे ये तो यहीं रही है कबसे ये तो आओ चलो मिलते हैं इस से साथ-साथ में बात-बात में देखें हम सारे आज... सर्दियों की धूप

एकलव्य पर्व EklavyaParv

एकलव्य पर्व ला रहा हूँ, कोने का केबिन अपने एक नए साथी को, जायदा ज़िम्मेदारी दे रहा है! एकलव्य जीवन का वह रंग है जिसे हम सब जी रहें हैं। सीखने वाले सब हैं-सिखाने वाले कम! या कहें, कि पसंद-नापसंद का मसला आ पड़ा है, और मुझे तो वही एकलव्य अरसे से याद आ रहा है, जिसने सीखा भी उसी गुरु से जिस से सीखना चाहा और गुरु का इंकार भी झेला! आइये, साथ चलते हैं eklavyaparv.com in a few days..

दीवार के उस पार-मेरे ही हैं सब!

दीवार के उस पार... दीवार के उस पार भी तो मेरा हिस्सा है मेरी यादें हैं! वहाँ भी वैसा ही उजाला है वैसे ही मौसम हैं... वही पतझड़ है वहाँ भी इतने ही पत्ते-जितने के यहाँ हैं गिरते उतने ही तो वहाँ भी गिरते हैं। वहाँ भी आग का धुआँ ऐसा ही तो है मेरे घर जैसा! इश्क़ भी वहाँ ऐसा ही और तो और बचपन के रंग भी... हुसना यहाँ गाये कोई तो वहाँ भी तो सुनता है कोई... कराहटें-और आहटें किस्मतों की सिलवटें ज़मीन के रंग-खाने के ढंग लिबासों की लज़्ज़त पकवानों के रंग... पानी का भी स्वभाव एक हवा-आसमां, और तो और गालियाँ भी सांझी। दोस्त को, दीवार के उस पार भी, वहाँ भी यार-बेल्ली-मित्तर प्यारा कहते हैं। वहाँ भी वही शाल ओढ़ते हैं सर्दी में जैसी मेरे यहाँ। वहाँ भी तो वही लोग हैं- जो दीवार के इस पार थे कभी। तीज-त्योहार-ख़ुशी-गुबार टीस- सब तो एक सा है। दीवार के उस तरफ़ भी-इस तरफ़ भी। कान लगाकर आवाज़ें नहीं सुनो तो भी आवाज़ आ ही जाती है। हम पड़ोसी नहीं हैं। हम भाई हैं। नक़्शे रिश्ते नहीं बदला करते। दीवार के इस-उस पार का अंधेरा-उजाला सांझा है। #unitedEmotions #IndiaPakistan @koneykacabin

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...yet another year of being Parveen!

"The difference between the impossible and the possible lies in a person's determination." It has been not that long time-but still almost five years ( over five years may be as the packing had started) since I joined an unknown workplace. I was less aware of the stature of my job; more fascinated about shifting to a place, I actually did not craved as I felt I was too simple-small to reach here. The call on the landline, that my mother had picked (from Chhaya Chandraker ), I did not respond the call on Mobile-She still called on the landline to reach me-... The call on landline, when I had agreed to be a candidate for interview seems a thing of yesterday because of the trueness of it. I, then asked Kanwar Gagan Deep Chauhan and he said come-I am here and no problem about stay during the process at all... Another elder brother Vijendra Malik .. and we three made a brotherhood of staying together for more than a couple of years in the same flat.  Of Cour

घर तो घर होता है... घर में माँ होती है

घर तो घर होता है घर में माँ होती है पापा होते हैं। घर में दिवार-छत के अलावा भी बहुत कुछ होता है घर में बाम होता है माँ से ही लगवाने को झूठा-मूठा जुकाम होता है। घर में धुप होती है छावं होती है चाव भी होता है। घर में ठहाके होते हैं घर में घड़ी की टिक-टिक भी है। आस-पड़ोस घर के आस-पास ही होता है, दीवारें सांझी बनती हैं मुंडेरें-गलियारे साथ-साथ सट जाते हैं। घर से ही तो काम पे जाया जाता है। घर ही तो लौट के आया जाता है। घर कब गरीब होता है भला सब कुछ कितना करीब होता है भला। अपनापन होता है जी घर में घर में फुसफुसाहट होती है एक को दुखता है तो सबको कराहट होती है। घर में बाज़ारी कुछ नहीं होता सब सुंदर होता है मन पे भारी कुछ नहीं होता घर में। घर में चप्पलें बंट जाती हैं चद्दर-कम्बल उलझ जाती हैं। घर में कितना कुछ छोटा-छोटा होता है। और घर कितना कितना बड़ा होता है।

शनि की बातें कच्ची । शनि की बातें सच्ची ।।

शनि कितने भेस बदल-बदल आता है ना मौसम देखता है और ना ही मौका ना तो जगह ना ही कभी देखता है वजह। कभी देखा कनस्तर में... आज भी वहीँ बस ताज़ा गेंदे के फूल की दो मालाएं घेरे हुए-सेवक तो कोई फिर भी पास नहीं। शनि कभी कनस्तर में कभी थाली और कभी डोलू में डूबा हुआ आ ही जाता है। और कैसा दिखता है भला बताओ तो जब तुम्हारी आँखों की तरफ खाली हथेली फैलती है मांगता है भीख एक ठिठुरता चेहरा झुर्रिओं भरा शरीर ढका-अधढका किस धर्म का कहूँ भला... रुखी हथेली-ठिठुरती आँखें पुकारती ज़रूरत भरी आवाज़ आने-जाने वाले को। और हर आने-जाने वाला मगन है जागरूकता के दंभ में। मौसम की ठंडी बदली हाथ जाने तो नहीं देती जेब में पड़े सूखे पैसों तक हाँ पर बात मन तक तो चली ही जाती है। शनि की बातें कच्ची । शनि की बातें सच्ची ।।

कह दे के, बोल दे अब तो

कह दे के, बोल दे अब तो- अब तो वक़्त तुम्हारा है। बरसों-बरसों की ख़ामोशी बीती- अब तो पास किनारा है। जिंदा होना-जिंदा दिखना; कहना-सुनना चलते रहना और भला क्या सोच रहे हो- इतना ही काम हमारा है। बुझे पड़े हैं चेहरे देखो-कहो ज़रा हुक्मरानों से अब तो, कौन-सी तुम आब हो पीते- हमारे घर का पानी खारा है। कुछ मुहब्बत की बात करें भला कैसे- क्यूँकर हम ....... ....

ये साल जिसमें तुम मिले...

आओ हाथ थाम कर देखते हुए सपन सांझे आगे चलते हैं। उस तरफ जिस तरफ़ से आती हैं खुशबुएँ मीठी और सब अपनी बातें सुनाई देती हैं जहां वहीँ जहां तुम रहते रहे- वहीँ जहां मैं मिल गया तुमसे वहीँ जहां सब रंग मिलकर एक रंग के हो जाते हैं। वहीँ जहां अनहद का विस्तार है कथा और भाव हैं। बीते साल ने इस साल को और इस कैलेंडर ने एक और नए कैलेंडर को दे दी है आवाज़। और देखना तुम... जैसे इस बारहखड़ी में तुम और मैं एक शब्द बने आने वाले दिनों में यही साथ बढ़ेगा। ये साल जिसमें तुम मिले पहचान मिली इस साल की बरकत बनी रहे कल और उसके साथ आने वाले हर कल में।

छोटी-छोटी अँखिओं में...

छोटी-छोटी अँखिओं में बड़े-बड़े सपने कैसे पल-पल पल जाते हैं ये अपने... नयी-नयी सी आहट आती और कहती वही पुरानी बातें अपनी सबकी और कहती हैं अपनी ज़ुबानी। कोई विराम नहीं है देखो और नहीं कोई श्योक्ति भी हाँ पर यादों में अनुस्वार है अनंत-अद्भूत पुनरुक्ति भी तो है। कैसा-किसने घड़ा है ये व्याकरण किसने बनाई है ये क्यारी कौन खेल रहा गुनगुनी छुप्पा-छुप्पी कुछ भी छुपा नहीं-गुम नहीं है यहाँ... छोटी-छोटी अँखिओं में बड़ी-बड़ी यादें... छोटी-छोटी यादों में देखो धुंधली-सी परछाई-सी है... चेहरा भी तुम्हारा मुस्कराहट भी और देखो नाम हम दोनों का... छोटी-छोटी अँखिओं में।