शहर को ज़िंदा करें कैसे...

कोई अगर शहर ज़िंदा करने निकले तो
कहाँ-कहाँ सांस फूंकने पड़ेंगे?
जवाब नहीं मांग रहा मैं
मुझे तो पता है
कि पता है तुम्हें।
मिलकर ही तो दम घोटा है
शहर का।
कभी क़स्बा रहा होगा
उस से भी पहले गावँ
और उस से भी पहले ज़मीन हुई होगी।
ज़मीन जिसे पता नहीं था
कि बंटेगी मात्र नहीं
ढकी भी जायेगी और छिनी जायेगी।
शहर ज़िंदा करने निकलो तो
दरख़्त ज़िंदा करने पड़ेंगे
पर कैसे करोगे
दरख़्त कहाँ हैं अब
हज़ारों कस्बों नें आकर शहर को ढक दिया है
छुपा दिया है दरख़्तों को।
कुछ जो नज़र आते भी हैं
कृत्रिम-समर्पित संग्रहालय हैं बस।
सड़क के किनारे
चौराहों पे भी भला कभी पेड़ जीते हैं।
जो हैं हरे-वो हैं डरे
नहीं डरेंगे तो फेंक दिए जाएंगे।
शहर में ज़मीन-पेड़ों के अलावा
रिश्ते-इंसान भी मरा है।
और इनकी चिकित्सा संभव नहीं।
जिसको ठीक करना है वही तो
गुनाहगार है।
ख़ुद को सज़ा देगा नहीं।


तो भला शहर को ज़िंदा करें कैसे...

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