छोटी-छोटी अँखिओं में...

छोटी-छोटी अँखिओं में बड़े-बड़े सपने
कैसे पल-पल पल जाते हैं ये
अपने...
नयी-नयी सी आहट आती और कहती
वही पुरानी
बातें अपनी सबकी
और कहती हैं अपनी ज़ुबानी।
कोई विराम नहीं है देखो
और नहीं कोई श्योक्ति भी
हाँ पर
यादों में अनुस्वार है
अनंत-अद्भूत पुनरुक्ति भी तो है।
कैसा-किसने घड़ा है ये
व्याकरण
किसने बनाई है ये क्यारी
कौन खेल रहा गुनगुनी छुप्पा-छुप्पी
कुछ भी छुपा नहीं-गुम नहीं है यहाँ...

छोटी-छोटी अँखिओं में बड़ी-बड़ी यादें...
छोटी-छोटी यादों में देखो
धुंधली-सी परछाई-सी है...

चेहरा भी तुम्हारा
मुस्कराहट भी
और देखो नाम हम दोनों का...
छोटी-छोटी अँखिओं में।

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