शनि की बातें कच्ची । शनि की बातें सच्ची ।।

शनि कितने भेस बदल-बदल
आता है
ना मौसम देखता है और
ना ही मौका
ना तो जगह ना ही
कभी देखता है वजह।
कभी देखा कनस्तर में...
आज भी वहीँ
बस ताज़ा गेंदे के फूल
की दो मालाएं
घेरे हुए-सेवक तो कोई फिर भी पास नहीं।
शनि कभी कनस्तर में
कभी थाली
और कभी डोलू में
डूबा हुआ
आ ही जाता है।
और कैसा दिखता है भला
बताओ तो
जब तुम्हारी आँखों की तरफ
खाली हथेली फैलती है
मांगता है भीख
एक ठिठुरता चेहरा
झुर्रिओं भरा शरीर
ढका-अधढका

किस धर्म का कहूँ भला...

रुखी हथेली-ठिठुरती आँखें
पुकारती
ज़रूरत भरी आवाज़
आने-जाने वाले को।
और हर आने-जाने वाला
मगन है जागरूकता के दंभ में।

मौसम की ठंडी बदली
हाथ जाने तो नहीं देती
जेब में पड़े सूखे पैसों तक

हाँ पर
बात मन तक तो चली ही जाती है।

शनि की बातें कच्ची ।
शनि की बातें सच्ची ।।

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