Posts

Showing posts from 2011

वहाँ... शायद, वहीं..............

मुझसे पूछना मत मैं कह दूँगा सब बातें ... दिन आख़िरी सिर्फ़ काग़ज़ पर है मैं तो कल भी यहीं मिलूँगा इसी मोड़ पर तुम्हारा इंतज़ार करता हुआ .. नहीं शायद !!! अब मुझे तुम्हारा इंतज़ार नहीं है उम्मीद है बस , किसी के आने की जो मुझे ले जाएगा यहाँ से ये कह कर कि तुमने बुलाया है मुझे वहाँ ... ये तो पता नहीं कहाँ मगर वहाँ ... शायद , वहीं ................. जहाँ हम पहली बार मिले थे ......

लगा कि कहीं तुम तो नहीं... फिर लगा तुम कैसे हो सकते हो....

धुंध में दूर इक परछाई दिखी लगा कि कहीं तुम तो नहीं... फिर लगा तुम कैसे हो सकते हो अभी अभी तो मैंने तुम्हें देखा था तुम मेरे साथ टहल रहे थे उस लंबी घुमावदार सड़क पर जिसपे हम घंटों चला करते थे... तुमने थामा हुआ था मेरा हाथ और मैंने कहा था कुछ... मुझे याद तो नहीं क्या कहा था... पर तुम नाराज़ हुई थी उस बात पर और कह कर गयी थी... आज नहीं मिलूँगी तुमसे... धुंध में दूर इक परछाई दिखी लगा कि कहीं तुम तो नहीं... फिर लगा तुम कैसे हो सकते हो.... तुम तो नाराज़ हो ना...

अभी ये कविता अधूरी ही है ..............जब मिलुंगा तुमसे तब कहूँगा और कुछ !

हर हफ्ते सोचता हूँ और हर हफ्ते इतवार निकल जाता है... तुमसे मिले हुए अरसा हुआ दोस्त, अक्सर याद करता हूँ तुमको और सोचता हूँ... इतना मुश्किल थोड़े ही है तुमसे मिलना बातें करना खेलना हँसना। मेरे पास   ना सही साथ तो हो ही ! कई बार तो तुम शहर में होते भी नहीं हो मगर मैं मिलने की सोचता रहता हूँ ............. .................................. अभी ये कविता अधूरी ही है जब मिलुंगा तुमसे तब कहूँगा और कुछ !।

हमारी कविता........

लो , एक नई कविता लिखता हूँ एक नया तराना एक नया गीत कुछ नये भाव कुछ पुराने किस्से एक नयी बात जिसमें किरदार नहीं हैं हम-तुम। जहां नहीं हैं बंधन इस जहाँ के , जहां अंधेरे नहीं हैं उजाले भी नहीं कागज़ नहीं है कोई और किसी स्याही का भी पता नहीं ! तुम सोचोगे ये कैसा गीत है... जिसमें हैं कुछ नहीं ! मगर मैं कहता हूँ सब कुछ है। आओ तो... देखो ज़रा इसमें क्या है... ? इसमें हमारे सपने हैं इसमें तिनका-तिनका जोड़ा हुआ हमारा घरोंदा है उम्मीदें हैं-आस है इसमें । जो कुछ भी है हमारे पास है इसमें। स्पर्श है कहीं तो कहीं मुस्कुराहट है... बाहर की नहीं भीतर की चाहत है । इसमें तस्वीर है कोई एक नाम भी है ! इसमें वो कोहनियों का टकराना है वो आज़ाद खामोशी है , जो अपनी है। और क्या चाहोगे भला ? इस कविता का एक नाम भी है.... “ हम”! ये हमारी कविता है ! जो नश्वर है...मुक्त है !!! December 13 , 2011

वो पन्ने जो किए थे ओस के हवाले ॥

वो पन्ने जो किए थे ओस के हवाले आज उठा लाया हूँ थोड़ा धूप मे रख कर सुखाना है बस... कभी कभी मेरा ये सीलन भरा मन सोच बैठता है कि कैसा हो अगर सूरज की भी कलाएं हो जाएँ चाँद की तरह । ओस की बुँदे टक-टकी लगाए मेरे ये ख्याल देखे जा रहीं हैं.... कहने का हक़ है मगर कहती नहीं हैं कुछ बिलकुल तुम्हारी तरह....! ओस की बुँदे टप-टप गिरती हैं मेरे भीतर भर देती हैं मुझे एक सागर की तरह और छोड़ देती हैं पूरे चाँद के लिए...वो आए और ज्वार लाये जितना चाहे। बह उठता है पानी वो जो इकठ्ठा हुआ था कभी ओस की बुँदे बेच कर... आज वही हिसाब देखना है... क्या खोया है क्या पाया है.... इसीलिए.... वो पन्ने जो किए थे ओस के हवाले आज उठा लाया हूँ थोड़ा धूप मे रख कर सुखाना है बस...

मैंने कहा था ऐसा...

मेरे घर कुछ मेहमान आयें हैं मैंने कहा था ऐसा और कहा था के तुम आ जाओ तो आसान होगा उनकी आवभगत करना । अचानक अगर चाय उबलने लगी तो तुम भागकर उसे संभाल सकते हो ... मैं अकेला नहीं होऊँगा तब... मैंने कहा था ऐसा.... और ऐसा ही कहा था ॥

कविता लिखना कानवास पे रंग भरने जैसा है या कानवास मे रंग भरना कविता कहने जैसा...

खाली तस्वीरें और भरे हुए Frame और कागज़ में रंग भरने की कवायद. शर्त ये कि रंग सुंदर हों.... सुंदर भी इतने कि आँखों को चुभे नहीं चेहरा पहचान आना नहीं.... मगर हो बिलकुल उस जैसा॥ न जाने कविता लिखना कानवास पे रंग भरने जैसा है या कानवास मे रंग भरना कविता कहने जैसा.... शायद दोनों एक जैसे हैं ! जैसे हम-तुम ॥

एक पाएदान से दूसरे तक....... फिर उससे भी आगे...

पाएदान एक एक करके कैसे हम बढ़ते जाते हैं उस समझ की  ओर जो हममें थी नहीं जब हमने चलना शुरू किया था... अगर बात सफ़र में हाथ थामने की ही सोची थी जब साथ चले थे तुम मेरे... तो साथ ही तो चलना है.. एक पाएदान से दूसरे तक और फिर उससे भी आगे ! हमारे-तुम्हारे साथ होने का परिचायक है हमारा- तुम्हारा आगे बढ़ते रहना साथ –साथ। एक पाएदान से दूसरे तक....... फिर उससे भी आगे ॥

मुझे बंधन बाँधना आता है... One of the Close to heart and from 2007 Cold Storage..

तुम्हे शायद ही याद हो शायद इसलिए क्यूंकी इन बीते बरसो ने मेरी यादों की ज़मीन पर एक गर्द सी जमा दी है हो सकता है तुम्हारे वहाँ भी हवा का तेज़ झोंका ना आया हो. मैं याद दिलाना चाहता हूँ हमारी वो छोटी-सी  बहस जब तुम लाई थी  मेरे भेजे ख़त एक सफेद लिफाफे मे बाँधकर मेरे लफ्ज़ मेरी ही आवाज़ मे सुनने के लिए.. हल्की सी गाँठ लगी थी मुझे तुम कस कर पकड़ें थी.. मैने तुम्हारे हाथों से छीनना चाहा था बस यूँ ही जब हम दोनो ने एक दूसरे के खिलाफ़ ज़ोर लगाया तो वो गाँठ और सख़्त हो गयी थी... फिर क्या था तुम नाराज़ हो गयी थी तुम्हारे लाख कहने पर भी मैं वो गाँठ ना खोल पाया था... ना बता पाया था उसकी वजह... तुम तो आज तक नाराज़ हो क्या आज भी ये समझ नहीं आया... मुझे बंधन बाँधना आता है बंधन खोलना ना पहले आता था... ना बीते बरसों में सीख पाया हूँ....

पिटारा

कुछ नमी सी थी मेरी मिट्टी में जब मैने देखा कि मैं धंसता जा रहा हूँ मैने एक पिटारा खोला उसमे से कुछ चुनिंदा पल चुनकर निकाले और उस नमी को सावन की रिमझिम बना डाला फिर निकल पड़ा भीगने नाचने मेरे अपने चाँद को नमी का तिलक लगाने... वो तुम्हारी यादों का पिटारा था...!

मेरी आँखों की कलाएं न देख पाये तुम...

चाँद की कई कलाएं होती हैं एक ज़ुबान होती है आंखों की मैंने जब सोचा कि दिल कि बात उड़ेल कर ये गठरी उतार दूँ... कुछ ही शब्द थोड़े से शब्द अपने शब्द मैंने ढूंढ ही लिए मगर मेरे लफ़्ज़ों का साथ नहीं दिया आँखों ने रास्ता देने वाला ही जब रास्ता बंद कर ले जब चाँद और आँखों को अलग कर दिया जाये कुछ तो फर्क पड़ता होगा.... चाँद कि ज़ुबान तो तूने समझी दोस्त....मेरी आँखों की कलाएं न देख पाये तुम... मैं तबसे खाली ज़मीन पर अकेला हूँ..... June 28 , 2007