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Showing posts from 2018

सड़क खोखली है नीचे से

सुखी नदी के ऊपर भला ये कैसा पुल है, यूँ लगता है के सड़क खोखली है नीचे से... घर की पूजा से नाकारा हुए फूल-पत्ते-छिलके धूं-धूं कर जली राख-कुछ कागज़-कोई टूटी मूर्ति पुरानी तस्वीर-लाल चुन्नी-खाली दियासलाई अधजली तीलियाँ-टुकड़ा जोत का गाँठ धूप की जो भी बचा खाने से सब का सब अटा पड़ा है पुल के नीचे दबकर सुख चुकी नदी में!

सपने तो रहेंगे ना...

मैं चाहे मिट्टी का बना हूँ... तुम भी। सपने मिट्टी के नहीं... ना बने हैं पानी के.. हवा के... सपने तुम से बने हैं। जब तक मैं हूँ... सपने तो रहेंगे ना....!

कुकुरमुतों के काफ़िले

सभी सभासदों के बीच ये बात है आज फिर कीडे-मकोड़े आने हैं। कभी हरियाली हुई काली और अब गुलाबी को बेरंग करते कुकुरमुतों के काफ़िले बढ़ रहे हैं। उन्हें बताया गया है के वे बढ़ रहे हैं जब सभासद जीत रहें हैं। फिर भी नागरिक का सामूहिक शोषण है। उदासीनता है- हताशा है प्रजातंत्र में। भंग करने की लालसा है  जनता में। कि अब नहीं उम्मीद कोई बस गिरावट ही गिरावट है। और देखो भला... असमंजस में फ़सीं भेड़ें गाड़ियों में ठूस ली गयी हैं। वही गाड़ियां पहले हरी पगड़ियों से सनी और अब गुलामी का गुलाबी पहन के सर पे बढ़ी जा रही हैं। आज तो ख़ाकी भी डंडा लिए जनता की सेवा में है। मजाल है कोई जाम लगे। आज-कल तो अराजकता के महासम्मेलन होते हैं। आओ शाम की वापसी की हुल्लड़बाज़ी का इंतज़ार करें।

बस आ जाना

कैसा उलटफेर है जीवन का द्रोण बना रहे हैं मिट्टी से एकलव्य आँखों के पानी से भिगो रहे मिट्टी बरसते कभी-कभी थामते कभी तहों से अपनी थोड़ी मिट्टी उतारते उकेरते एकलव्य की शक्ल-भाव बरबस ही ज़्यादा भी उड़ेल देते हैं पानी और मिट्टी छप-छप हो जाती है। फिर कुछ देर थामते घटाओं को और चाक घुमाते जीवन का। द्रोण! टूटे-फूटे, रूखे-सूखे पड़े हैं यहीं, मेरे पड़ोस में, घर में, बगल में मुझ में! अब शांत रहते हैं उनके हाथ पानी भी और गहरे उतर गया है। एकलव्य की मिट्टी रम-सम सी गयी है उनके ही इर्द-गिर्द। अपने दोषों का रोपण कर बैठे हैं द्रोण अपने ही जीवन में। कड़ी फ़सल काटनी पड़ रही है बिलख कर रोते हैं रटते हैं दोहराते हैं कराहते हैं द्रोण। कहते हैं मुझे मुझे ले चलो कहीं उस छोर-उस ग्रह जहां आँखों में धुआँ हथेलियों में नमी ... ... पता नहीं द्रोण को क्या चाहिये बस पिछले पहर से ही बिलख रहे हैं। आओ तो एक रुमाल ले आना। कुछ और नहीं। बस आ जाना। याद जो आती है बड़े-बड़े ठूंठ हिला देती है।

संकोच कहाँ करता है

मनुष्य-कहने में कितना सजग सा शब्द है जीता है और जीतता है हारता है भी- भागता भी है। एक तरफ़ हो जाता है जब नहीं अच्छा लगता दूसरी तरफ़। और जब असमंजस हो इधर-उधर तो अपने आप को लेकर साथ स्थापना होती है आत्म-सम्मान की। जीवन चलाना है-चलना भी है। क्यूँ भला आसक्त हों-क्यूँ कभी परि-भक्त हों। अपनत्व अपने से ही हो तो कितना अच्छा लगता है। स्वयं को आये समझ जो वही स्थापित सत्य है।और जो है असत्य वह तो हवा में उगता है। क्यूँ हों आसक्त... किसी दुविधा नहीं- अपितु सुविधा का नाम है जीवन। तभी तो लगता है के दुपहिया है जीवन और त्रिकोण भी।

अभी तो राम रास्ते में हैं!

अभी तो राम रास्ते में हैं! आयें तो कहना... मैं आया था पूछने-बताने तो नहीं कहने-चेताने तो नहीं नहीं रोकने को- ना टोकने को... मैं आया था बांटने को बातें नाते-रिश्ते-सौगातें... मुझे बताया के रास्ते में हो! मैं पूछ बैठा देहरी से.. रास्ता कहाँ जा रहा है राम का... देहरी कुछ अरसे से चुप ही रही और मैं इंतज़ार करके चला गया! #दिवाली का महत्व या प्रासंगिकता नहीं.. अस्तित्व समझने का मन है!

राम

राम भला तुम हुए भी थे कभी और अगर हुए तुम तो किसके लिए थे बुराई पर अच्छाई की जीत या फिर मर्यादा के लिए। तुम थे मित्रता सिद्धान्त के लिए या के भगतवत्सल भाव या फिर तुम थे एक सभ्य-आदर्श पुत्र-पिता तुम भले भ्राता भी कहलाते हो और एक जीवनसाथी भी। अब वही उलझन है जग को जो जानकी को परखने में थी तुम्हें झगड़ा था कुछ-कुछ ज़िद्द-कुछ समझ-नासमझ। तब न्यायालय नहीं बैठे थे बस स्वतः ही पटाक्षेप हो गया था। तुम ही रह जाते तो कहीं भी रह लेते! अब तुम्हारे रहने को लेकर बहस है होने को लेकर असमंजस है। ना ही करते यात्रा जनमानस के मानस में तुम तो ठीक रहता। चारदीवारी में प्रतिबंधित होने के दंश से तो बच जाते। सोचता हूँ राम! अगर तुम नही आते (कल के बाद घर जायेंगे अपने राम। रावणों की दुनिया में हैं, कुछ बातें यहीं कह ली जाएं।)

आजकल

सचमुच आसान नहीं होता बंद दरवाज़ों से आती एक महीन सी रोशनी की लकीर के सहारे रास्ता सोचना। और मान लेना कि यहीं से कहीं जाता है इक और रास्ता जो इस दरवाज़े के उस ओर किसी नई दुनिया में खुलता है। शब्द् तो जो कहे जा चुके-कहे ही जा चुके हैं। पर इतना भी क्या भरोसा कहे शब्दों पर कि इंसान अपना कहा नकार न सके। दूसरे का कहा सुधार न सके। अनकही समझ न सके। कही को सही से मान ले। छोटे-बड़े होने से कुछ नहीं होता मगर छोटा-बड़ा बोलने से तो बहुत कुछ होता है भाई। कितनी बातें, बायें - दायें हो जाती हैं। मेले में-रेले में कितनी बातें इधर से उधर हो जाती हैं। पर जब ये बिछड़ी-उलझी बातें बुरा नहीं मानती- तो हम क्यों बुरा मान जाते हैं। छोटे को बड़ा कहलवाने से कुछ नहीं होता बड़े को बड़ा मानने से बड़प्पन आता है। ख़ुशी आती है। रिश्ते चल निकलते हैं। अच्छे से। #रामायणtales #दुनियादारी #आजकल

मितर प्यारे नूँ, हाल मुरिदाँ दा कहणा

इतना भी आसान नहीं नींद सो जाना चैन की। जो जानते हैं सुकून का रास्ता चलते रहते उसपर और जो नहीं जानते भटकते रहते ता-उम्र! जो दिख रहा हर ओर कि इंसान एक-दूसरे को ही काट रहा-छोड़ रहा और रख के सर पे पैर ऊँचा होने का दंभ भर रहा कैसे बताऊं उसे जिसने बना भेजे हाड़-मास के ये खिलौने।

किसे नहीं भाएगा भला...

किसे नहीं भाएगा भला... अपनी महीन रेशमी मुठ्ठी में जब जकड़ ले मेरी एक अंगुली को... और टिम-टिम करती आँखों से निहारे वो अपने पैरों को हवा में उड़ा मस्त दिखे और बुलबुले उड़ाये होठों से... बिल्कुल वैसे जैसे आपको भाते हैं। जब कुरेदे अपने रेशम से भी नरम नाखूनों से मेरे चेहरे को गोदी में आ चुप हो जाए रोने से और अहसास दे आपको सबसे बड़ी जीत का। निन्नु ले दैवीय सी अपने जीवन की पहली आपके सीने से सटकर... आप अपनी बाहँ डाले रखो के कहीं लुड़के ना इधर-उधर। जब बैठे-बैठे थकन की नींद भरपूर आनंद दे... सोये आपका बेटा आपकी गोदी में और नसीहत मिले के बिगाड़ो मत। और आप कहो के इत्ते से क्या होता है... और लगो इतराने-बतियाने-बोलने-समझने। इस से बड़ा क्या भला पागलपन के जब पता हो के इसे नहीं पता भाषा का और फिर भी सब कहे जाता हूँ-इसी यकीन से कि मेरा ही तो अंश है-इसी को तो सब पता है मेरा। कितना भला लगता है नोजी से नोजी भिड़ाना... और नटखटी बातें बनाना... और मासूम छुअन जादू कर दे मन पर तो बलैयाँ ले लेना चाँद की अपने। कभी ठुड्डी ढूंडो तो कभी नाक मिलाओ कभी ऒऒऒऒ कभी उ उ उ उ उ एक नयी वर्णमाला जिसका कोई सिमित व्याकरण नहीं।

माँ किसान की बेटी है!

माँ तुम ठीक ही करती थीं हम रहते थे छोटे से एक कस्बे में और गर्मी की छुट्टियों में नाना के घर जाते थे। गेहूँ कटती थी उस मौसम में जब स्कूल की होती थी छुट्टी और ख़ूब काम करते थे हम खेतों में। मैं सो जाता था निढाल थककर सुनहरे मोतियों के ढेर पर मखमल से भी मीठी नींद आती थी। वो अनाज जो गेहूँ की बालियों से चुन लेते थे सब मामा मेरे कल भी-आज भी देखा जाते हुए-आते हुए दफ़्तर, वो तिजोरियाँ भीग रहीं हैं पानी बरस रहा है लबालब अनाज पर और तेज़ बारिश सावन नहीं लग रही मौसम सुहावना-रूमानी कुछ भी नहीं लग रहा ये बुरा-सा और याद आ रहा वो वहम माँ का हम रहते थे छोटे से एक कस्बे में, माँ दौड़ कर रख देती औंधे मुहँ काला तवा, बरसना रुक जाएगा-गेहूँ नहीं बहेगी-किसान बच जाएगा-अनाज बन जायेगा! माँ का ये सत्याग्रह कितना ज़रूरी है, माँ किसान की बेटी है!