कैसा उलटफेर है जीवन का द्रोण बना रहे हैं मिट्टी से एकलव्य आँखों के पानी से भिगो रहे मिट्टी बरसते कभी-कभी थामते कभी तहों से अपनी थोड़ी मिट्टी उतारते उकेरते एकलव्य की शक्ल-भाव बरबस ही ज़्यादा भी उड़ेल देते हैं पानी और मिट्टी छप-छप हो जाती है। फिर कुछ देर थामते घटाओं को और चाक घुमाते जीवन का। द्रोण! टूटे-फूटे, रूखे-सूखे पड़े हैं यहीं, मेरे पड़ोस में, घर में, बगल में मुझ में! अब शांत रहते हैं उनके हाथ पानी भी और गहरे उतर गया है। एकलव्य की मिट्टी रम-सम सी गयी है उनके ही इर्द-गिर्द। अपने दोषों का रोपण कर बैठे हैं द्रोण अपने ही जीवन में। कड़ी फ़सल काटनी पड़ रही है बिलख कर रोते हैं रटते हैं दोहराते हैं कराहते हैं द्रोण। कहते हैं मुझे मुझे ले चलो कहीं उस छोर-उस ग्रह जहां आँखों में धुआँ हथेलियों में नमी ... ... पता नहीं द्रोण को क्या चाहिये बस पिछले पहर से ही बिलख रहे हैं। आओ तो एक रुमाल ले आना। कुछ और नहीं। बस आ जाना। याद जो आती है बड़े-बड़े ठूंठ हिला देती है।