संकोच कहाँ करता है

मनुष्य-कहने में कितना सजग सा शब्द है
जीता है और जीतता है
हारता है भी- भागता भी है।
एक तरफ़ हो जाता है जब नहीं अच्छा लगता दूसरी तरफ़।
और जब असमंजस हो इधर-उधर
तो अपने आप को लेकर साथ
स्थापना होती है
आत्म-सम्मान की।
जीवन चलाना है-चलना भी है।
क्यूँ भला आसक्त हों-क्यूँ कभी परि-भक्त हों।
अपनत्व अपने से ही हो
तो कितना अच्छा लगता है।
स्वयं को आये समझ जो वही स्थापित सत्य है।और जो है असत्य
वह तो हवा में उगता है।
क्यूँ हों आसक्त...

किसी दुविधा नहीं-
अपितु सुविधा का नाम है जीवन।
तभी तो
लगता है के
दुपहिया है जीवन और त्रिकोण भी।

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