तुम कितने अपने हो, देखो...
कहना हक़ से
सब
और फिर दे
देना जवाब
जवाबदेही से.
‘मर्ज़ी है मानो या नहीं.....
...मैं हूँ ही कौन...’
तुम्हारा ये
कहना
कितना अपना
बना देता है
तुम्हें..
तुम नहीं
जानते!
नहीं जानते हो
तुम,
कि मैं
निहारता हूँ तुम्हें और सोचता भी हूँ....
जीवन के
चौराहे पे मेरा नियंत्रण सही...मगर
कुल मिलाकर
तीन और तीन -
छह लकीरें ही तो हैं
जिन्हें जानने
का दावा है मेरा...
पर ये तक तो पता नहीं के तुम हो इनमें या नहीं...
तुम्हारे होने
से है ये सब-
नहीं तो मेरा
जीवन
चौसर मात्र
है..
जिसमें
कोई भी दाव लग
सकता है
मुकर भी सकता
है कोई...!
तुम कितने
अपने हो,
देखो...
इधर-उधर की सब
बातें
बेतरतीब तरीके
से सुना देता हूँ तुम्हें..
और तुम
कुछ नहीं
कहते..
सुन लेते हो.
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