कहानी को जीना पड़ता है दोस्त


असमंजस भला कैसा-
कैसी उलझन-
कौन से सवाल-
और कितने जवाब-
कुछ ज़रूरी नहीं होता,
बस साथ रखना होता है।
जीवन कितना शिकायती है हमारा !
कितनी कोशिशें हैं !?!
ख़ुद से ख़ुद को झटक कर अलग करने की!
कितनी आँखे हैं जो
अनदेखा करती हैं।
कैसे भला वहम में जी रहे हो,
समझते हो सब-
नकारते हो बस मुझे।
तुम आते हो
लौट जाते हो।
कैसे भला?
. . इतना तो देखा है ना
पकी हुई मिट्टी को
फिर गला नहीं सकते तुम
नहीं ढाल सकते और किसी आकार में.
यही तो शाश्वत साथ है-
इसी को तो हमारी नश्वरता कहते हैं।
मेरा होना-
तुम्हारा अहसास
सब किरदार ही हैं
इस कहानी में
और
कहानी को जीना पड़ता है दोस्त-
पात्र
बदला नही करते
साथ रहते हैं॥

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