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Showing posts from April, 2012

तुमसे कुछ-कुछ कहा... मगर कितना कुछ रहा॥

बहुत सी बातें तो सिर्फ ख्यालों में ही रह  गईं... ना तुम तक पहुंची-ना कही गयी मुझसे! कितनी बार सुबह उठते ही जगाया है साथ तुम्हें और गया हूँ साथ-साथ टहलने। कई बार टकराईं हैं कोहनियाँ हमारी   और सकुचाये हो तुम , और मैं भी। कितनी बार मैंने कहा तुमसे कि मेरे साथ रहो। कितनी बार तुम्हें देखकर उदास , मैंने रखी है अपनी हथेली तुम्हारी उँगलियों पर। कई-कई बार घनी धूप से तुम्हें ढांपने को तुम्हारे और सूरज के बीच आया हूँ मैं। सब हुआ है ये- हमारे तुम्हारे बीच पर सिर्फ़ ख्यालों में सिमटा है ।   एहसास तो अब भी उतना ही जीवंत हैं मुझे...   तुम्हारे स्पर्श का। कभी कह नहीं पाया के तुम्हारी और मेरी हथेली में कुछ लकीरें एक जैसी दिखती हैं। तुम्हारा लहज़ा मुझ सा लगता है कभी कभार॥ कुछ भी तो नहीं कहा तुमसे ना तुम बोले कितने ख्याल रहें हैं बिन कहे... कितने दरबान बैठाये हैं एक दहलीज़ पर  हमने... ना तुमने इन्हें जाने को कहा- ना मेरी जुर्रत हुई। तुमसे कुछ-कुछ कहा... मगर कितना कुछ रहा॥

तुम कितने अपने हो, देखो...

कहना हक़ से सब और फिर दे देना जवाब जवाबदेही से. ‘ मर्ज़ी है मानो या नहीं..... ... मैं हूँ ही कौन... ’ तुम्हारा ये कहना कितना अपना बना देता है तुम्हें.. तुम नहीं जानते! नहीं जानते हो तुम , कि मैं निहारता हूँ तुम्हें और सोचता भी हूँ.... जीवन के चौराहे पे मेरा नियंत्रण सही...मगर कुल मिलाकर तीन और तीन - छह  लकीरें ही तो हैं जिन्हें जानने का दावा है मेरा... पर ये तक तो पता नहीं के तुम हो इनमें या नहीं... तुम्हारे होने से है ये सब- नहीं तो मेरा जीवन चौसर मात्र है.. जिसमें कोई भी दाव लग सकता है मुकर भी सकता है कोई...! तुम कितने अपने हो , देखो... इधर-उधर की सब बातें बेतरतीब तरीके से सुना देता हूँ तुम्हें.. और तुम कुछ नहीं कहते.. सुन लेते हो .

सपनों वाली मिट्टी का ही बना हूँ मैं....

किस मिट्टी के बने होते हैं सपने ना भीगते हैं ना हैं सुखते , ना रंग फ़ीका पड़ता है और ना चड़ता है कोई और रंग... ना दुखती हैं आँखें देखते रहो बेशक टकटकी लगाकर... किरदारों की अदला-बदली में भी ढूढ़ लेते हैं हम अपनापन... अनोखापन. कितनी मीठी होती है वो कोशिश जब फिर से बोना चाहते हैं सपनों में सपने... झटक कर खुल जाती  हैं  अगर आँखें झपक कर करते हैं बंद फिर से... उसी स्वप्न में जीने के लिए... उसी पात्र से मिलने के लिए जिसे मिलते भी हैं रोज़.. पर नहीं कर पाते सारी बातें... मेरे ही जैसा है जीवन सपनों का या सपनों वाली मिट्टी का ही बना हूँ मैं.... ना गलता हूँ ना सूखता ना याद आता हूँ ना भूलता...

क्या अभी तक फैला रखा है तुमने आँचल अपना आसमाँ पर..

क्या अभी तक फैला रखा है तुमने आँचल अपना आसमाँ पर....! ? क्या अब भी हल्के-हल्के मुस्कुरा रहे हो तुम..! ? मेरे शहर में... हल्की बूंदा-बाँदी है अभी. . और आसमाँ पे घना-सा एक आँचल है कोई.. तुम हो क्या ! मेरे आस-पास... सावन की इस आहट के साथ तुम तो नहीं आए हो ना ? ..... तुम्हें पसंद रहा है किसी वक़्त... दबे पाँव आना और हैरान करना मुझे.... आज भी..हर बार की तरह पहचाने जा रहे हो तुम.... तुम्हारे आँचल में चमकीले सितारे हैं.. कुछ चाँद हैं... जो यकायक दमक उठते हैं ,,,, और मैं निहारने लगता हूँ.. भीगने लगता हूँ... तुम्हारी मुस्कुराहटों में . समेट लो ना आँचल... पर मुस्कुराते रहो... बहुत सुंदर लगते हो... सच में.. बहुत !!!!

मन की बात तो आज भी कहनी पड़ती है....

जीवन की तुकबंदी...!!! कैसे-कैसे बन्द बनाती हैं जीवन की ये बारहखड़ी.... सब तरह की व्याकरण.... तरह-तरह की मात्राएं... कभी अर्ध-विराम और कभी पूर्ण... बिन बताये प्रश्नचिन्ह.... ............. फिर भी खुशियों के लिए कोई symbol नहीं है दो-तीन चिन्हों को मिलाकर मुस्कुराहटें बना तो देते हैं... फिर भी कितना मुश्किल है भावनाओं को- अपनेपन को मशीनी लिखावट में पिरोना... । मन की बात तो आज भी कहनी पड़ती है.... मन से मन तक....

मन... उतावला है कई पहर से... बतियाने को....

एक पट वाले दो किवाड़...और उनके पीछे छिपी कितनी खिड़कियाँ... ना जाने कौन सी खुलती है तुम्हारी तरफ़ , और कहाँ से जाता है रास्ता मेरी ओर.... मेरी अथाह कोशिशों में भी , कहूँ कैसे मैं... खालीपन है इत्ता-सारा.... बहुत सारा... भटक सा रहा है मन... उतावला है कई पहर से... बतियाने को.... एक झलक-एक स्पर्श तुम्हारा एक शब्द-एक तसल्ली...॥ तुम्हारे बिना सब कुछ तो होता है...मगर कुछ भी नहीं होता॥ कुछ भी नहीं है... एक तुम्हारे होने से मैं हूँ मेरा अस्तित्व है जीवन है मेरा.... सब दरवाज़े खुले हुए हैं....सब खिड़कियाँ दिख रहीं हैं..। सबमें सब कुछ है...एक तुम्हारे होने से... मैं हूँ.... मेरे शब्द-मेरे अक्षर … मेरे भाव-उनके सब उतार-चड़ाव , सब मेरा है॥ हमारा है ,,, इस अनुभूति के लिए सिर्फ तुम्हारी अनुभूति का होना ज़रूरी है...और कुछ नहीं... बस... तुम्हारा होना....

शब्द ठिठुरते हैं तुम बिन

शब्द ठिठुरते हैं तुम बिन कांपती हैं उँगलियाँ आँखों में बेचैनी रहती है और मन उदास होता है.... इतना भी क्या ना होने का अभ्यास करवाना... कैसा है ये तैयार करना मुझे आने वाली कमी के लिए... मेरे वर्तमान को कमी देकर... । तुम्हारा साथ तो मेरा अधिकार है... जब तक है- तब तक तो है ही। तो बताओ...मुझे हम अधूरे जीवन क्यूँ जीने लगते हैं... साथ रहकर भी...ये मानकर कि अधूरे तो होना ही है भविष्य में। शायद सफ़ल प्रयास-उस भविष्य को सच में अंकित कर देते हैं हमारे जीवन-ग्लोब पर..... कितनी भी परिक्रमा कर लें हम..... फिर नहीं मिटती अंधेरी पुर्णिमा जीवन से.... । भय में साथ रहकर भी साथ ना रहना... दुखद है... पर्याय अगर ना हो तो विपरीत खोजना अनुचित है... साथ तो साथ होता है !!! नहीं तो कुछ नहीं होता। बस शब्द ठिठुरते हैं तुम बिन कांपती हैं उँगलियाँ आँखों में बेचैनी रहती है और मन उदास होता है....

मेरी बगिया के फूलों में इक ख़ामोशी है !

मेरी बगिया के फूलों में इक ख़ामोशी है ! इंतज़ार है सबको किसी के आने का सांझा इंतज़ार! मेरी हर बात पर हाँ-हाँ करते हैं मेरी बगिया के फूल और हैरान भी दिखते हैं कभी कभी... दोहराते हैं हैरानी अपनी मुस्कुराहटों में भी । छुपाते नहीं है कुछ भी , कभी नाराजगी नहीं आती है इनमें ऐसा मैला रंग है ही नहीं मेरी बगिया के फूलों में। जीवन की सांप-सीढ़ी के इस खेल में ये दोस्त साथ देते हैं मेरा , जैसे बचपन के साथी हों मेरे , और जिनके साथ मैंने खेला हो अपना ‘ खुशपन ’ अपना बचपन! सच कहते हैं... खुद को समेटने के लिए उनका हमेशा साथ रहना ज़रूरी है जिनमें बांटा हो ख़ुद को.... तलाश नहीं करनी पड़ती तब साधनों की ; आ जाते हैं खुशबू देखकर सब साथी... बस यादों-और-साथ की बगिया संभालनी पड़ती है। वही तो कर रहा हूँ , तुम्हारे इंतज़ार में... मेरी बगिया के फूलों में इक ख़ामोशी है ! इंतज़ार है सबको तुम्हारे आने का सांझा इंतज़ार!