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Showing posts from March, 2012

तुम उदास ना हुआ करो...

तुम उदास ना हुआ करो... रंग फीके पड़ जाते हैं खारे हो जाते हैं बादल और फूल धुंधले... सब अटपटा सा लगता है बिना तुम्हारी मुस्कान के। तुम उदास ना हुआ करो॥ दुनियादारी हल्की पड़ जाती है खोजने का मन करता है वजह को जिसने सताया है तुम्हें और डांटने की इच्छा-सी होती है मेरी... तुम उदास ना हुआ करो॥ तुम्हारा चुप रहना बहुत बोलता है... और तुम्हारी मुस्कुराहट कितने कर्ज़ उतारती है मेरे। मोतियों की माला पिरो के रखा करो...इन मोतियों की। कोने में सजा रखीं हैं डोरियाँ मैंने , उनमें अपनी मुस्कुराहटें ऐसे की पिरोते रहना... उदास ना होना... सब अटपटा सा लगता है बिना तुम्हारी मुस्कान के। तुम उदास ना हुआ करो॥

आज अमावस थी ना... कहाँ थे भला तुम...

क्या तुम पर किसी का कोई बंधन नहीं तुम्हे कोई नहीं टोकता क्या बड़ा होने से , क्या कोई नहीं घबराता जब तुम छोटे होते जाते हो ढूंढता नहीं है क्या कोई तुम्हें जब गुम होते हो दिन की रोशनी में बादलों को टटोलता है कौन भला तुम्हारे लिए. कोई कहता है क्या के याद आती है तुम्हारी कोई छूता है क्या तुम्हें अपनेपन से कोई मुस्कुराता भी है क्या तुम्हें देखकर नहीं ना. . तभी तो शायद तुम माह में एक बार छुप के रोते हो सब से... आज अमावस थी ना... कहाँ थे भला तुम....

तुम्हारे बाद की बातें भी तो तुम्हारे साथ की बातों से अछूती नहीं हैं

हर साल तो आता है सावन! अपनी सालगिरह मनाने बस पानी अलग-अलग रंग का लाता है किसी बरस लाया था भूलने का पानी , और अगली बार बरसा बूझने का पानी। कई दफ़ा मिलते-जुलते से रंग ले आया बिल्कुल वैसा जैसा मेल होता है इंद्रधनुष के रंगो में। संदे से लाया था पिछले बरस तुमने बोला होगा ना... या फिर किसी और ने किसी अपने को ! वही रंग चुरा लाया नासमझ... भीनी-भीनी बारिश के बीच सबको , सबका होना दिखाता है। मुझे गणित नहीं आता..पहले से , तुम बताओ अगर चाहो ! ?! अबके कितने बरस का होगा सावन ? हिसाब-किताब की बातें कर रहा हूँ तुमसे तुम जैसी बातें। तुम याद आते हो ना ... तुम्हारे बाद की बातें भी तो तुम्हारे साथ की बातों से अछूती नहीं हैं ! ..... हर साल तो आता है सावन!

कहानी को जीना पड़ता है दोस्त

असमंजस भला कैसा- कैसी उलझन- कौन से   सवाल- और कितने जवाब- कुछ ज़रूरी नहीं होता , बस साथ   रखना   होता   है। जीवन कितना   शिकायती है हमारा   ! कितनी कोशिशें   हैं ! ?! ख़ुद   से   ख़ुद   को झटक   कर   अलग करने की! कितनी आँखे   हैं   जो अनदेखा   करती हैं। कैसे भला   वहम में   जी रहे हो , समझते हो   सब- नकारते हो बस मुझे। तुम आते हो लौट जाते हो। कैसे भला ? . .  इतना तो देखा   है   ना पकी   हुई मिट्टी को फिर गला नहीं सकते तुम नहीं ढाल सकते और किसी आकार में. यही तो शाश्वत साथ है- इसी को तो हमारी   नश्वरता   कहते   हैं। मेरा होना- तुम्हारा अहसास सब किरदार ही   हैं इस   कहानी में … और कहानी को जीना पड़ता है दोस्त- पात्र बदला नही करते साथ रहते   हैं॥

रतजगा है एक... जिसमें मैं सोता हूँ...

मुझसे कहा तो होता किसी ने कि तुम याद करते हो नाराज़ हो मना लेता मैं... छोड़ देता ख़ुद को तुमने कहा नहीं कहलवाया भी नहीं अरसे बाद बहे हो तुम तुम्हारी ही आँखों से। मैंने ना कहा था एक हद तक ही मना सकता हूँ ख़ुद को... उसके बाद तुम्हारा आना ज़रूरी है तुम्हारा होना मेरे लिए सहारा नहीं है पहचान है मेरी...तुम्हें खोना हार नहीं है मेरी ,,, रतजगा है एक... जिसमें मैं सोता हूँ... फिर से बोने की कोशिश में कुछ सांझे सपनों को.... आओ अगर तो सहला जाना ज़रा... तुम्हें भी तो प्यारे थे... मुझसे कहा तो होता॥

तुम्हारी परिभाषा कितनी विशाल है... कितनी सुंदर है...

तुम्हारी मुस्कुराहट महसूस होती है लगती है मुझे अपनी सी... पास से निकलते हो तुम तो जादू घोल जाते हो साँसों में तुम्हारा स्पर्श  किसी गुलाब की बिल्कुल नई पंखुड़ी को  छूने जैसा होता है.... और देखना तुम्हें ठंडक देता है थकी आँखों को... तुम समझ जाते हो मेरे भावों का ज्वार--- और थपकी देकर सुला देते हो मेरे बेचैन सपनों को। तसल्ली देना कितना अच्छा होता है और तुम्हारे साथ साथ चलना और भी सुंदर। तुम्हारा अस्तित्व मुझे प्रेरित करता है और शब्द... शब्द स्वर देते हैं मेरे संगीत को। तुम्हारी परिभाषा कितनी विशाल है... कितनी सुंदर है... लिखूँ तो हर काव्यपुष्प तुम्हें अर्पित होता है... बोलूँ तो... तुम्हें ही निहारती हैं आँखें। तुम मैं हो और मैं तुम! तभी तो कभी एक दूसरे से अलग जा नहीं पाते , साथ रहते हैं॥

पहला चाँद... जनवरी 01-2007

My First Literary Workshop as a Student in 2006 gave me a new enlightened 2007…. First Creation….on Chaand!!! कभी कभी मैं और मेरा चाँद चाँद से बातें करते हैं … चाँद के बारे में बतियाते हैं। सुनाते हैं लिख भी देते हैं दिल की बेतरतीब कहानियाँ। हम दोनों...मैं और मेरा चाँद... कई बार उस चाँद पर हक़ जताते हैं कई बार नाराज़ भी होते हैं... कई बार छीन लेना चाहते हैं, और कई बार तो दान ही कर देते हैं... तलब को ही ख़त्म कर देते हैं.... January 01-2007

.दोस्तो के साथ... होली

तीन घर होते थे बचपन में... एक के ऊपर एक.... फिर भी छत सांझी होती थी सबकी , वहाँ हम मिलकर...दोस्तो के साथ... होली खेला करते थे... आज देखा शहर के घर की छत से... कितने दोस्त-मित्र हैं आस पास की छतों पर... रंग सजाते हैं एक-दूसरे के चेहरों पे... सचमुच.... भावनाएं ही तो बनाती हैं सांझी छतें------!!!!   होली मुबारक!!! रंग मुबारक!!! इ न्द्र ध नु षी मुस्कुराहटें बनी रहें !!!! :-)