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Showing posts from November, 2013

कथा की कहानी

मैं कथा की कहानी कहने चला हूँ। कथा को हम सभी जानते हैं। हम सब में एक कथा है- मुझमें और आप में - हर उस मन में कथा का ठहराव है जिसे आस पास का कुछ महसूस होता है। कथा प्रतीक है- पर आप इसे एपिसोड्स में नहीं बाँध सकते। अभी तो आईडिया ही आया है- जब कुछ कहने लायक होगा तो छप जाएगा फेसबुक पर भी। अभी मन के काग़ज़ों पे ही छींटें पड़ रहे हैं। आओ कहानी कहें। विशेष नोट ( इंग्लिश में भी लिख सकता था मैं पर मित्रवर नकार गए सो मन की बात मन की भाषा में लिखी जाएगी)

अराजकता के महासम्मेलन

सभी सभासदों के बीच ये बात है आज फिर कीडे-मकोड़े आने हैं। कभी हरियाली हुई काली और अब गुलाबी को बेरंग करते कुकुरमुतों के काफ़िले बढ़ रहे हैं। उन्हें बताया गया है के वे बढ़ रहे हैं जब सभासद जीत रहें हैं। फिर भी नागरिक का सामूहिक शोषण है। उदासीनता है- हताशा है प्रजातंत्र में। भंग करने की लालसा है जनता में। कि अब नहीं उम्मीद कोई बस गिरावट ही गिरावट है। और देखो भला... असमंजस में फ़सीं भेड़ें गाड़ियों में ठूस ली गयी हैं। वही गाड़ियां पहले हरी पगड़ियों से सनी और अब गुलामी का गुलाबी पहन के सर पे बढ़ी जा रही हैं। आज तो ख़ाकी भी डंडा लिए जनता की सेवा में है। मजाल है कोई जाम लगे। आज-कल तो अराजकता के महासम्मेलन होते हैं। आओ शाम की वापसी की हुल्लड़बाज़ी का इंतज़ार करें।

हम निभा लें धरती ही...

जहां चाँदनी मुस्कुराती हो समय से आती हो-साथ रहती हो। ठंडक स्वभाव में होनी ही चाहिये। और क्या जवाब दें भला... ग्रहों-ग्रहों भटकने वाले हम निभा लें धरती ही तो बहुत होगा। मौकापरस्ती की कौम है बनी सारी थोड़ा इसी गिरावट को सम्भालें तो बहुत होगा।

क्यूँ भला- क्या भला

क्या भला करते हैं हम कोशिश प्रयास क्यूँ भला हम करते हैं। गाहे-बगाहे सफ़ल भी होते फिर भी तो संकोच हैं करते। दोहराते हैं हम वही विधि जिसमें आती है निति। इक नन्हे बालक की भांति जीवन को चलाते हैं और दंभ भरते हैं परिपक्वता का। क्यूँ भला करते हैं हम कोशिश प्रयास क्या भला हम करते हैं।

अनमनी सी इक मनी

अनमनी सी इक मनी किसने मानी किसने सुनी। हिस्सेदार कईं हैं इस मनी के और अहिस्सा रहा एक बस अनमनी कैसे बने सहमनी किसने बनायी है भला अनमनी कैसे बनी।

मन उज्ज्वल तो जग

मन उज्ज्वल तो जग जग उज्ज्वल तो हर ओर जग-मग जग-मग होती है। रस्ते-रस्ते खुशियाँ आती आती हैं लड़ियाँ खिलती खुलती हैं पेटियाँ-बक्से बंटते हैं खेल-खिलौने मीठा-शीठा भी तो आता बम्ब-पटाखे कोई लाता। कोई कोई क्या सब कोई ये और सारे त्यौहार मनाता। दिन किसी के आने का वापस अपने घर-अयोध्या में और दीप जले घर-घर देखो जग-जग मग-मग करते हैं। बात यही है समझ में आती घर लौट के आना अपनों के संग ही दिवाली है होती । आओ चलो मिलते हैं सबसे मेरे तेरे सबके अपने... अपने भी वही हैं होते सुख-दुःख के साथी हैं जो सब। आओ मिलो... दीप जलाओ-ख़ुशी मनाओ।

आज आख़िरी बार रतिया जाना है-औपचारिक रूप से तो... October 30,2013

मिगलानी टी स्टाल पे चलता लखबीर सिंह लख्खा का भजन... काम होगा वही जिसे चाहोगे राम...अपने स्वामी को सेवक क्या समझाएगा.. उंघते से कुछ मेरे जैसे लोग कुछ तरो-ताज़ा. यात्री.. सब आ-जा रहें हैं। सड़क के दूसरी ओर अख़बार असेम्बल हो रहे हैं। उनमें इश्तहार डल रहे हैं। और ये काम इतनी तेज़ गति से हो रहा है कि पारंगत हाथ-आँखें और दानवीर जिह्वा से आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। लखबीर -झुला झूले रे बजरंगी हनुमान..-पर आ चुके हैं। अखबार की कार्यशाला के पास ही सोया हुआ छोटा सा पुलिस थाना है और बगल में ही एक असहाय एटीएम। मुझे किसी ऐसी गाड़ी का इम्तजार है जो अखबार ढोती हुई मेरे शहर से होकर जायेगी। फतेहाबाद से रतिया आप हर वक़्त नहीं जा सकते बस से। बस के आने में अभी तो पैंतालिस मिनट हैं। रतिया के लिए-मेरे लिए फतेहाबाद शहर हुआ करता...फिर हिसार इससे बड़ा लगा..कुरुक्षेत्र से पढ़ाई की तो (एक अखबार वाली गाड़ी मिल गयी है-जिसमें पीछे के हिस्से में सीट हैं और ड्राईवर मिगलानी से चाय पीते ही चल पड़ेगा) ...कुरुक्षेत्र से मैं चलता फिरता संसाधन बना और कुछ दिन-महीनों फतेहाबाद मैं अपनी पहली नौकरी की। और फिर एमिटी ने बु