आसमाँ पर...... रंग भरना तुम


मैं जब फैला दूं काग़ज़ आसमाँ पर
रंग भरना तुम......
सिर्फ़ तीन रंग लाना --
एक तो ग़ुलाबी हो ज़रूर और दूसरा नीला हो
बची हुई जगह को छोड़ देना सफ़ेद ही !
अगर कोई चाहे तो अपने रंग भर ले
हमें तो रंग बचाना भी है ना...
कितने अधूरे आसमाँ देखें हैं ह्मने
कुछ मैनें और
बाकी तुमने.
कितनी मटमैली  चौखटें  ढहती  देखी हैं
और कितनी सुनी हथेलियाँ...
कितनी...!!!
कितनी दफ़ा भला हैरान हुए हो
कितनी बार उड़ा है रंग चेहरे का
और जा बैठा है आसमाँ पर
और तब आ पड़ी ज़रूरत
उसे रंगने की..
भावनाओ का ये कुनबा
कब बंट गया
देखा ही नहीं किसी ने..!
कब आ गयीं खराशें
मन की नींव पर !?!
उन्हीं को रंगना है अब. . .
आओ... सारा सफ़ेद रंग
वहीं ले चलें-----
अपने आधार की ओर....
हमारा आधार ही तो हमारा अपना है .

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