मेरा हुनर हो तुम.....
मेरा
हुनर हो तुम.....
जब
भी कभी कहना होता है कुछ
आ
जाते हो समझने-
मेरे
कहने से पहले थाम लेते हो भाव मेरे
मैं
लड़खड़ाता हूँ गर कभी
तो
हथेली तुम्हें ही ढूँढती है
तुम
मेरे सपनो को पालते हो
सहेजते
हो मेरे आधार को
और करते हो हम-सी बातें
कितने
अपने हो-और कैसे मिले हो
ये
तो हम ढूँढ नहीं पाते...
मगर
मिलती है ख़ुशी...
तुम्हारी
परिभाषा नहीं है
". . . . .
"
अपनी
शक्ति को
बाँधने
का नहीं
साधने
का प्रावधान हो तुम मेरे जीवन में. .
मेरा
हुनर हो तुम...
जिसको
मैं जीता हूँ...
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