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Showing posts from May, 2012

एक शब्द कहीं से मिला....

सीप की तलाश में भला मैदान वाले किधर जायें॥ .... मोतियों की तो खरीददारी संभव है पर जनक उनका फिर भी दूर हमसे... और हम दंभ भरते हैं... विकास का...

कितने भी रंग सजा लूँ...

तुम्हारे ना होने की भरपाई कहाँ कर सकता है कुछ... कितने भी रंग सजा लूँ... एक तुम्हारे रंग बिना ये पूरा इंद्रधनुष धूमिल सा लगता है... फीका लगता तो मैं रंग और भर देता!!! तर्क-वितर्क , प्रश्न-उत्तर , सब विवश हैं... बिन बताये चुप हुए हो- देखो मौसम से शिकायत है मुझे रूठा हूँ मैं हवाओं से और अपनी कविताओं से तुम्हें कुछ बुरा लगा होगा... या बहुत अच्छा नहीं लगा होगा कुछ मेरा कहा... वही रंग बता दो मुझे- मैं निकाल दूँ उसे अपने बीच से और पा लूँ वही इंद्रधनुष साथ का॥ जिसमें भरोसा तो है- समझ तो है साथ तो है!!!

मैं वही चारदीवारी हूँ...! तुम्हारी अपनी...

मैं वही चारदीवारी हूँ...! तुम्हारी अपनी... पहली , मैं वो दीवार हूँ जिसमें दरवाज़ा है अधखुला - सा एक... उसके पीछे छिपे हैं कितने जीवन- कितने दिन-और शाम तुम्हारी। रंग है फीका मेरा लेकिन आना-जाना घना रहा है॥ तुम्हारा सिरहाना देखो बनता था उस ओर... जागे-सोये कितनी रातें कितनी-कितनी...बहुत हैं बातें! कितने सपने... कितने सांझे और कितने अपने... जब बैचेन होते , तो सिरहाने से मुँह फेर के सोते थे तुम ! तीसरी ओर देखो आकर... ये दीवार है फिर भी- खिड़की सी कहलाती है... अपनी सी हवाएँ....ख़ुशबू....गर्मी-सर्दी हर मौसम यहीं से आती हैं। तुमसे बातें करते-करते देखो टोक रहे हैं मुझे कोने अभी.... कहते हैं हममें जुड़ती है दीवारें... हमें भी करने दो बातें तुमसे! ........... ये जो चौथी दीवार है अपनी... इस पर पीठ सटाकर तुम घंटों बैठा करते थे.... बतियाते थे किसी अपने से !!! जब-जब साथी नाराज़ हुआ तो मुझको देखा करते थे... मुझ पर कितनी बातें लिखते... और हटाया करते तुम !! रूठे नहीं देखा तुम्हें कभी.... मगर उसे बहुत मनाया करते तुम॥ ................ म

ये वापसी का सफ़र

ये वापसी का सफ़र बेशक मांगा था कभी... पर—आज ना दे मुझे! मैं वापस लेता हूँ वो दुआ अपनी ....! अब कितनी यादें हैं मुझे रोकने को। क्या पता कैसी ये हालत है मन की आज ??? देखा था मैंने बहुतों को जाते हुए इस गुलिस्ताँ से... मगर..... आज मुझे जाना है....!!!!!! कैसे रितकर जाते थे वो साथी मेरे... कैसे करते थे कोशिश... जल्दी-जल्दी सामान समेटने की... हर वो सजाई हुई बात.... वो चीज़ें... कैसे उठाऊँ भला.... !!!! देखो !!!! मुझसे नहीं उतर रहा ये कागज़ दीवार से..... देखो , वहाँ ऊपर हाथ नहीं पहुँच रहा मेरा.... हाथ बटाओ मेरा॥ मेरे दोस्त॥ साथी॥ कितना मुश्किल है तुमसे अलग होना... मैं खाली होता हूँ सफ़र में आज.... ...... सोचता हूँ..... जब पहुंचुंगा घर की दहलीज़ पर तो खाली हो चुका होऊँगा तब तक!!!