एक शब्द कहीं से मिला....
सीप की तलाश में भला मैदान वाले किधर जायें॥ .... मोतियों की तो खरीददारी संभव है पर जनक उनका फिर भी दूर हमसे... और हम दंभ भरते हैं... विकास का...
मैं जब बात करूं कोने की तो बात अपनी सी लगती है दो दीवारें मिलती हैं दो किरदार भागे जाते हैं कोने की ओर कुछ अपनी बातें भी तो कोने में ही हो पाती हैं. कोने में रहना संतुष्टि देता है सबल करता है प्रबल बनता है और शायद प्रवीण भी! कोने का केबिन कोई खोज नहीं है यह सब पाया हुआ है संजोया हुआ है बांटने आया हूँ बस! दफ़्तर में केबिन कोने में ही है.... अपनापन अपनेपन से हो ही जाता है!