मैं यादें बुन रहा था..बेशक
मैं यादें बुन रहा था... पता नहीं कहाँ से निकल आया एक सिरा तुम्हारे नाम का.... एक जैसी इन रंग-बेरंगी डोरियों का जादू समझ ही नहीं आया मुझे तुम दिखे कहीं-कहीं और ओझल भी हुए... धागों का खेल भला कहाँ से सीखा तुमने...! ?! ये अद्भुत लुका-छुपी तुम्हारी आज भी साथ-साथ छुपा लेती है मुझे अपने आप से पूछना नहीं पड़ता तुम्हारे साथ जाने की लिए। भीगने से बचा लेती हैं ये डोरियाँ... आपस में कितने अच्छे से जुड़ी हुई हैं सब , एकदम कतारबद्ध। अजब है ना ! ? ! कोई नकारता है तो तुम याद आते हो स्वीकारता है कोई , तो खोजता है मन तुम्हें... टटोलता रहता हूँ एक पिटारा... यही हुआ अब भी-तब भी... आज भी और कल भी॥ अब समझा हूँ.... अगर एक सिरा मेरे पास है... तो दूसरा शायद तुमने थाम रखा है ..... अब समझा हूँ.... मैं यादें बुन रहा था..बेशक धागे तो सारे तुम्हारे ही रंगे हुए हैं।