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Showing posts from February, 2012

मैं यादें बुन रहा था..बेशक

मैं यादें बुन रहा था... पता नहीं कहाँ से निकल आया एक सिरा तुम्हारे नाम का.... एक जैसी इन रंग-बेरंगी डोरियों का जादू समझ ही नहीं आया मुझे तुम दिखे कहीं-कहीं और ओझल भी हुए... धागों का खेल भला कहाँ से सीखा तुमने...! ?! ये अद्भुत लुका-छुपी तुम्हारी आज भी साथ-साथ छुपा लेती है मुझे अपने आप से पूछना नहीं पड़ता तुम्हारे साथ जाने की लिए। भीगने से बचा लेती हैं ये डोरियाँ... आपस में कितने अच्छे से जुड़ी हुई हैं सब , एकदम कतारबद्ध। अजब है ना ! ? ! कोई नकारता है तो तुम याद आते हो स्वीकारता है कोई , तो खोजता है मन तुम्हें... टटोलता रहता हूँ एक पिटारा... यही हुआ अब भी-तब भी... आज भी और कल भी॥ अब समझा हूँ.... अगर एक सिरा मेरे पास है... तो दूसरा शायद तुमने थाम रखा है ..... अब समझा हूँ.... मैं यादें बुन रहा था..बेशक धागे तो सारे तुम्हारे ही रंगे हुए हैं।

आसमाँ पर...... रंग भरना तुम

मैं जब फैला दूं काग़ज़ आसमाँ पर रंग भरना तुम...... सिर्फ़ तीन रंग लाना -- एक तो ग़ुलाबी हो ज़रूर और दूसरा नीला हो बची हुई जगह को छोड़ देना सफ़ेद ही ! अगर कोई चाहे तो अपने रंग भर ले हमें तो रंग बचाना भी है ना... कितने अधूरे आसमाँ देखें हैं ह्मने कुछ मैनें और बाकी तुमने. कितनी मटमैली  चौखटें  ढहती  देखी हैं और कितनी सुनी हथेलियाँ... कितनी...!!! कितनी दफ़ा भला हैरान हुए हो कितनी बार उड़ा है रंग चेहरे का और जा बैठा है आसमाँ पर और तब आ पड़ी ज़रूरत उसे रंगने की.. भावनाओ का ये कुनबा कब बंट गया देखा ही नहीं किसी ने..! कब आ गयीं खराशें मन की नींव पर !?! उन्हीं को रंगना है अब. . . आओ... सारा सफ़ेद रंग वहीं ले चलें----- अपने आधार की ओर.... हमारा आधार ही तो हमारा अपना है .

मेरा हुनर हो तुम.....

मेरा हुनर हो तुम..... जब भी कभी कहना होता है कुछ आ जाते हो समझने- मेरे कहने से पहले थाम लेते हो भाव मेरे मैं लड़खड़ाता हूँ गर कभी तो हथेली तुम्हें ही ढूँढती है तुम मेरे सपनो को पालते हो सहेजते हो मेरे आधार को और करते हो हम-सी बातें कितने अपने हो-और कैसे मिले हो ये तो हम ढूँढ नहीं पाते... मगर मिलती है ख़ुशी... तुम्हारी परिभाषा नहीं है ". . . . . " अपनी शक्ति को बाँधने का नहीं साधने का प्रावधान हो तुम मेरे जीवन में. . मेरा हुनर हो तुम... जिसको मैं जीता  हूँ...

जानते हो हमारा रिश्ता क्या है...

जानते हो हमारा रिश्ता क्या है... मैंने रास्ते देखें हैं साथ चलते हुए... दो-दो सड़कें एक साथ॥ दो परिंदे एक ही आसमान में उड़ते देखें हैं मैंने॥ पगली बातें करती चार आँखें और एक दूसरे को थामती हथेलियाँ.... तुम्हें देखना ख़ुद को देखने जैसा ही होता है... जानते हो हमारा रिश्ता क्या है... क्यूँ भला होते हैं  एक साथ हम जब हम सोचते हैं... एक जैसी भाषा- और सांझे शब्द... अपनी नींद भी सांझी- और सपने भी एक ही साथ बुने हुए... मुस्कुराहट दोनों की और दिन हमारा। जादूगर उँगलियाँ और बचपन की सारी अठखेलियाँ सब लौटा लाते हो तुम... जानते हो हमारा रिश्ता क्या है...?!!! कुछ है भी या सिर्फ़ हम हैं॥ रिश्ता तो दो में होता है... हम तो एक हैं ना....

दो गाँठे मत लगाना.... खोल नहीं पाऊँगा

अभी कुछ नहीं कहूँगा तुमसे... अभी तो बात कुछ और करनी है पूछना है कुछ … एक सवाल करना है तुमसे . जानता हूँ के तुम्हें... जवाब देना ,, वो भी बोलकर... पसंद नहीं है... पर क्या करूँ … समझ नहीं आया है कुछ तुम न कहते थे के जब भी रूठे कोई तो मनाने के लिए प्यार दोहरा दो अपने लफ्जों में ! मैंने कई बार किया है ये... मनाया है तुम्हें …. कितनी बार..... अब मगर ... क्यूँ मेरी ये सीढ़ियाँ कहीं नहीं जा पाती... ! नाराज़ होकर तुमने लौटाया था मेरे लफ़्ज़ों को। क्यूँ भला , लगा देते हो... दो-दो गाँठे तुम...... मैं खोल भी नहीं पाता हूँ जान नहीं पाता हूँ क्या कहा है तुमने.... ? एक अनुरोध है... हमारे रिश्ते में... संभावनाएं हैं..... सपने हैं..... दो गाँठे मत लगाना  मैं खोल नहीं पाऊँगा.... सच....अनुरोध है... नाराज़ बेशक होना...पर मुँह  ना फेरना कभी.....!!!