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Taar nukiley hotey hain

 T aar nukiley hotey hain ghar k baahar diwaar k upar kinaare-kinaare kitne din bandhey rahtey hain na kuchh kahte na bolaa kartey hain Rukney waale ruktey khud hi ye na kisi ko roka karte hain aur to sab theek hi hai inka bas taar nukiley hotey hain

वो लौट आएं अगर

  वो लौट आएं अगर तो समय और सामयिक सिद्धान्त जीवन और समझ के, सब बदल जाएंगे यकायक। वो लौट आएं अगर तो मुझे सही संबल मिलेगा सबल होने का जो उनके साथ होकर मिलता था मिलता है अब याद करके-बात कर कर। कल की रात बादलों में अठखेलियाँ करता दो कला छोटा चाँद देखा था कभी बादल उसके ऊपर लुढ़कते तो कभी वो खिसक आता घटाओं में से जैसे मेरा बेटा कहता कि वो खेलता है पार्क में लगी फिसल पट्टी पर। ये चाँद होगा पूरा और मैं कर रहा हूँगा याद अपने गुरुओं के आशीष को और उनको भी जिन्होंने मुझे बोने दिए मेरे सपने उनके सच्चे मन की धरा पर। तपाक से बोल आता हूँ मैं पूरे दशक की कहानी कैसे किया इतना कुछ स्थापित एक नवाचार जैसा। मेरे सिखाने-मुझसे सीखने वाले एकदम जादूगर हैं! कुछ भी करवा लेते हैं। यकायक याद भी आ जाते हैं! वो लौट आएं अगर तो कितना अच्छा हो!

मुझे मेरी कविताएं कहनी हैं

मुझे मेरी कविताएं कहनी हैं और तुम्हें कहना है वो जो दोहराव से परे आभास के इस ओर की बात है। मुझे कहना है कि जब भी तुम कहते हो शब्द् सटीक-सुन्दर मैं उकेर देता हूँ पंछियों का कलरव बारिश की रिम-झिम खिलखिलाहट छुटपन की और रूमानी मुहब्बत की बातें... नाम तो मेरा होता है... सोचा है मैंने कि क्यों न ऐसा करें हम दोनों एक-नाम भी हो जाएं। एक तो हैं ही...!

साथी यूँ ही बढ़ते रहना...

  साथी! तुझपे सातवाँ पत्ता आया है सात जो बिल्कुल साथ-सा बुल जाता है... उच्चारण में... सप्त जो दिनों को स्वरों को रिश्तों के वचनों को... रंगों को... पड़ावों को गिनता है... क्रमबद्ध करता है... वही सात अगर मुझे भी मनबद्ध जीवनबद्ध साहसबद्ध नियमबद्ध कर दे तो कितना सरल हो जाये जीवन! साथी यूँ ही बढ़ते रहना... किसी भी रूप में किसी भी नाम से। बस हरे रहना! साथी... सातवाँ पत्ता मुबारक!

सुन मेरे हिन्दोस्तान

 सुन मेरे हिन्दोस्तान  तुम अगर इंसान होते ना  ज़ोर का गले लगाता  रो भी पड़ता और चुप भी रहता! कहता तुझसे कि इतना भी आसान नहीं हैं  अपनी ही मिटटी से दूर रहना और  भारतीय ही कहना खुद को! अपने तिरंगे को निहारना विदेशी आसमान में  और  कभी-कभी ये भी होना की उदास रहना  और कभी इतनी ख़ुशी कि सब भूल जाएँ! कभी अपने खाने को खोजना  जैसे जंगल में हिरन कोई कस्तूरी की खोज के हो  हिंदुस्तान मेरे, तुम अगर इंसान होते ना  लौटते ही तुम्हारी धरती पर,  तुम्हारे पैर छूता और कहता -  तुम कितने विशाल को, कितने ख़ालिस, कितने सच्चे  जैसे हो समावेशी तो हो ही,  मुझे समा के रखते हो खुद में और  शरीर भेज देते हो सीमाओं के पार -  देश तो अपना है न, अपने से है

सड़क से सड़क

आलू गन्ने सरसों गेहूं ! सूरज की सुनहरी किरणों से चमकते-इठलाते... खेत देख रहा मैं सड़क से सड़क जाते। कितना कुछ है समझने-देखने को! जीवन को संसाधनों को ये प्रकृति कैसे अनुमति देती है सक्षम होने की। कैसे उग आते हैं कंकरों जैसे बीज मिट्टी भेदते हुए... नज़रिया हो तो हर मौसम में ज़िंदगी के उम्मीद की रंगत मिल जाती है। ज़मीन ही कुछ ऐसी है जीवन की! : The Morrning Musings

सड़क खोखली है नीचे से

सुखी नदी के ऊपर भला ये कैसा पुल है, यूँ लगता है के सड़क खोखली है नीचे से... घर की पूजा से नाकारा हुए फूल-पत्ते-छिलके धूं-धूं कर जली राख-कुछ कागज़-कोई टूटी मूर्ति पुरानी तस्वीर-लाल चुन्नी-खाली दियासलाई अधजली तीलियाँ-टुकड़ा जोत का गाँठ धूप की जो भी बचा खाने से सब का सब अटा पड़ा है पुल के नीचे दबकर सुख चुकी नदी में!