घूर के देखता हैं चाँद
घूर के देखता हैं चाँद तलहट्टी में बैठा उदास सपने बीन रहा होता है जब और मैं आवाज़ लगा देता हूँ ख़राश भर आवाज़-टकटकी लगाकर लगा तो देता हूँ... पर चाँद रूठ जाता है- जा बैठता है आसमां पर और छेड़ देता है वही कला-राग फिर से घटने-बढ़ने लगता है और कभी बढ़ने-घटने ... नाम लेकर जगाता है छोटा है मुझसे पर मुझे महसूस नहीं होता... वो अपना है- उसे अपना मानकर-निभाकर ही तो बड़प्पन आता है। चंद दिनों का नहीं चाँद दिनों का रिश्ता है- भाई-भाई हैं मैं और चाँद!
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