सारी उम्र चाक बन घूमता है... मिट्टी को थामे रखता है...

बूंद भर उम्मीद समेट कर ले जाता है
कतरा कतरा टटोलता है आशा
और तराशने की तलब
बढ़ाता जाता है दिन-दिन
रात-रात जगता है सवालों के साथ
सोया हुआ मिलता हैं कई बार घिरा हुआ
जवाबों की जमहाई में
दीवारों के बीच एक हरियाली पतंग बन उड़ता है
थामता है कांपते मन
माँगता है साथ ज़्यादा-सबसे
बात करता हुआ सीखता जाता है।
कई-कई बार तराज़ू में तुलता है-हल्का हो जाता है
बाँटकर सब अपना ज्ञान!
अपनी किताबें साँझी करता है-
अपने घर-परिवार का कर लेता है विस्तार
कभी मैदान की तरफ भाग लेता है
खेलने को नन्हों के साथ
और कभी
रूमानी हो जाता है भीग बारिश में!
हर दोहरा मानी संभाल लेता है-
गर्मियों के खाली दिनों में
बड़ी उदासी से चुप रहता है-
सावन बन आते हैं वापस सुनने वाले तो
बरस पड़ता है-खूब बोलता है
छुट्टियों के बाद।
अपने गुरुओं को याद रखता है-
वैसा-सा ही बनना चाहता है।
एक कुम्हार का संसार जैसे
चाक पे होता है तैयार...
सारी उम्र चाक बन घूमता है...
मिट्टी को थामे रखता है...
जब तक रूप नहीं लेती सही!

एक पढ़ाने वाले का जीवन कितना काव्यात्मक होता है...
कुछ भी कहो...
अच्छा ही होता है!

‪#‎Teacher

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