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Showing posts from January, 2014

कह दे के, बोल दे अब तो

कह दे के, बोल दे अब तो- अब तो वक़्त तुम्हारा है। बरसों-बरसों की ख़ामोशी बीती- अब तो पास किनारा है। जिंदा होना-जिंदा दिखना; कहना-सुनना चलते रहना और भला क्या सोच रहे हो- इतना ही काम हमारा है। बुझे पड़े हैं चेहरे देखो-कहो ज़रा हुक्मरानों से अब तो, कौन-सी तुम आब हो पीते- हमारे घर का पानी खारा है। कुछ मुहब्बत की बात करें भला कैसे- क्यूँकर हम ....... ....

ये साल जिसमें तुम मिले...

आओ हाथ थाम कर देखते हुए सपन सांझे आगे चलते हैं। उस तरफ जिस तरफ़ से आती हैं खुशबुएँ मीठी और सब अपनी बातें सुनाई देती हैं जहां वहीँ जहां तुम रहते रहे- वहीँ जहां मैं मिल गया तुमसे वहीँ जहां सब रंग मिलकर एक रंग के हो जाते हैं। वहीँ जहां अनहद का विस्तार है कथा और भाव हैं। बीते साल ने इस साल को और इस कैलेंडर ने एक और नए कैलेंडर को दे दी है आवाज़। और देखना तुम... जैसे इस बारहखड़ी में तुम और मैं एक शब्द बने आने वाले दिनों में यही साथ बढ़ेगा। ये साल जिसमें तुम मिले पहचान मिली इस साल की बरकत बनी रहे कल और उसके साथ आने वाले हर कल में।

छोटी-छोटी अँखिओं में...

छोटी-छोटी अँखिओं में बड़े-बड़े सपने कैसे पल-पल पल जाते हैं ये अपने... नयी-नयी सी आहट आती और कहती वही पुरानी बातें अपनी सबकी और कहती हैं अपनी ज़ुबानी। कोई विराम नहीं है देखो और नहीं कोई श्योक्ति भी हाँ पर यादों में अनुस्वार है अनंत-अद्भूत पुनरुक्ति भी तो है। कैसा-किसने घड़ा है ये व्याकरण किसने बनाई है ये क्यारी कौन खेल रहा गुनगुनी छुप्पा-छुप्पी कुछ भी छुपा नहीं-गुम नहीं है यहाँ... छोटी-छोटी अँखिओं में बड़ी-बड़ी यादें... छोटी-छोटी यादों में देखो धुंधली-सी परछाई-सी है... चेहरा भी तुम्हारा मुस्कराहट भी और देखो नाम हम दोनों का... छोटी-छोटी अँखिओं में।