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Showing posts from October, 2013

नीम से कुछ पत्ते गिरे हैं...

नीम के पेड़ से आज अभी पत्ते गिर रहे हैं- सड़क भरी पड़ी है पत्तों से जो टूटे हैं अलग-अलग टहनियों से कोई तो मज़बूत रही होगी किऐ कमज़ोर ने भी त्याग दिया होगा फिर भी कोई टकराव नहीं सब सहज हैं-समर्पित। पत्ते ये किसी के भी पैरों तले आ रहे हैं। कितने सहनशील हैं। शील। कुछ गाढ़े हरे भी और बाकी पीले हैं कुछ अधपीले- कुछ छोटे हैं और कुछ दूर जा पड़े हैं अपने घर की सीमा से। फिर भी- मुझे पता है- मुझे ही क्या सबको पहचान है/ कि ये सब पत्ते नीम के ही हैं। नीम के इस पेड़ से आज-अभी कुछ पत्ते गिरे हैं।

मैं रहूँ सहज-और रहूँ बस

मैं मुझको जाणु और मैं ही पहचाणु मुझको। मैं बरसों-बरस खुल-खुल के बंधा जाता। मैं बिना पूछे-कहे निभाता जाता। यूँ ही चला चल राही कितनी हसीन है ये दुनिया। रास्ते- वास्ते बदले काहे को तू मन छोड़े काहे को अपनी बोली बदले तू अपनी भाषा ही अपनी है रहती परि-भाषा तो पराई ही है होती। मैं रहूँ सहज-और रहूँ बस .... बस रह जाऊँ-ख़ुद से निभा जाऊँ।

निचोड़ा हुआ सा मन और मन में गूँजती हुई आवाज़ें

दिनों दिन महीने और बरस-दर-बरस इक तारा बन के गूँजते बजते रहना और सम्मोहन को नाम देना प्यार का निभाते रहना और फिर एक दिन खींच लेना हाथ .... खाली हाथ-सामने वाली हथेली ही जब खामोश है अबके तो मेरी अंधी उँगलियाँ भला किसको थामें। तो भला कौन सा त्योहार-अबकी बार। ये कहानी है दोस्त किरदार बदलते हैं- कथानक तो वही रहता है। अजब होगा वो भी खेला जब हाथी से खाली हुई जगह को भरा जाएगा उसकी अनुपस्थिति से। इक तारा कैसा साज है... एकला भी कितना सहज है- भीड़ में भी कितना सरल। देखें ज़रा ज़िद्द करें हम भी। मंच के पीछे बहुत कुछ होता है कथानक में नहीं पात्रों के जीवन में- जीया जाये चलो उन्हीं पुराने दिनों को। इक तारा गूँजता रहे बस। सहज-सरल।