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Showing posts from January, 2013

तुम ही बता दो

तुम पर बात कहूँ तो रंग बिखर जाते हैं हर तरफ़ अब तुम ही बता दो, मैं रंगो से बात करूँ या ख़ुद से...

तुमसे ज़्यादा कौन रूमानी है-कौन प्यारा है- कौन अपना है!

“ कुछ रूमानी लिखो ना! मौसम भी अच्छा सा है... या कहूँ के तुम सा है। ” ये बात कही है उसने मुझे और मैं लिखने बैठा हूँ... कुछ रूमानी कुछ प्यारा कुछ रंगीन कुछ ऐसा जिसमें बात भी हो और साथ भी... जो पास भी हो और ख़ास भी। जिसमें जादू भी हो और हो जादूगर भी... जिसमें बचपन हो और उम्र भी॥ भला लिखना कैसे आ जाता है जब तुम्हारा हुकुम होता है...या कहूँ के तुम ऐसे ही कह देते हो कि सुनाओ ना कुछ अपना सा- और मैं लिखने बैठ जाता हूँ! कुछ रूमानी कुछ प्यारा सा कुछ अपना सा रंगीन …………….. अरे सुनो ………. मुझे सुनने वाले मेरे साथी तुम्हारा नाम तो कहो ज़रा वही लिख कर कागज़ भेज दूँ तुम्हारे पास... भला- तुमसे ज़्यादा कौन रूमानी है-कौन प्यारा है- कौन अपना है!

छुपन-छुपाई.....

छुपन-छुपाई खेला करते बचपन में... सोचा करते खेल है ये-खेल खेल में ढूंढा करते छिपे हुओं को गिनते थे गिनती और दौड़ते जाते थे बोल-बोल कर दोस्त अपने को ना पहले कहते थे कुछ हाँ... कभी-कभी उनको ही कहते थे पहले …….. कितना खिलाड़ी है ना ये ऊपर वाला खेल भी खेलता है और धप्पा भी नहीं करता। बस खोजने देता है ख़ुद ही- ख़ुद को!