Posts

Showing posts from November, 2018

सपने तो रहेंगे ना...

मैं चाहे मिट्टी का बना हूँ... तुम भी। सपने मिट्टी के नहीं... ना बने हैं पानी के.. हवा के... सपने तुम से बने हैं। जब तक मैं हूँ... सपने तो रहेंगे ना....!

कुकुरमुतों के काफ़िले

सभी सभासदों के बीच ये बात है आज फिर कीडे-मकोड़े आने हैं। कभी हरियाली हुई काली और अब गुलाबी को बेरंग करते कुकुरमुतों के काफ़िले बढ़ रहे हैं। उन्हें बताया गया है के वे बढ़ रहे हैं जब सभासद जीत रहें हैं। फिर भी नागरिक का सामूहिक शोषण है। उदासीनता है- हताशा है प्रजातंत्र में। भंग करने की लालसा है  जनता में। कि अब नहीं उम्मीद कोई बस गिरावट ही गिरावट है। और देखो भला... असमंजस में फ़सीं भेड़ें गाड़ियों में ठूस ली गयी हैं। वही गाड़ियां पहले हरी पगड़ियों से सनी और अब गुलामी का गुलाबी पहन के सर पे बढ़ी जा रही हैं। आज तो ख़ाकी भी डंडा लिए जनता की सेवा में है। मजाल है कोई जाम लगे। आज-कल तो अराजकता के महासम्मेलन होते हैं। आओ शाम की वापसी की हुल्लड़बाज़ी का इंतज़ार करें।

बस आ जाना

कैसा उलटफेर है जीवन का द्रोण बना रहे हैं मिट्टी से एकलव्य आँखों के पानी से भिगो रहे मिट्टी बरसते कभी-कभी थामते कभी तहों से अपनी थोड़ी मिट्टी उतारते उकेरते एकलव्य की शक्ल-भाव बरबस ही ज़्यादा भी उड़ेल देते हैं पानी और मिट्टी छप-छप हो जाती है। फिर कुछ देर थामते घटाओं को और चाक घुमाते जीवन का। द्रोण! टूटे-फूटे, रूखे-सूखे पड़े हैं यहीं, मेरे पड़ोस में, घर में, बगल में मुझ में! अब शांत रहते हैं उनके हाथ पानी भी और गहरे उतर गया है। एकलव्य की मिट्टी रम-सम सी गयी है उनके ही इर्द-गिर्द। अपने दोषों का रोपण कर बैठे हैं द्रोण अपने ही जीवन में। कड़ी फ़सल काटनी पड़ रही है बिलख कर रोते हैं रटते हैं दोहराते हैं कराहते हैं द्रोण। कहते हैं मुझे मुझे ले चलो कहीं उस छोर-उस ग्रह जहां आँखों में धुआँ हथेलियों में नमी ... ... पता नहीं द्रोण को क्या चाहिये बस पिछले पहर से ही बिलख रहे हैं। आओ तो एक रुमाल ले आना। कुछ और नहीं। बस आ जाना। याद जो आती है बड़े-बड़े ठूंठ हिला देती है।