ए बंदा बना के तूँ दस की लभया...
हिंदुस्तान की ज़िंदादिली बड़ी पसंद रही है। बड़ा अच्छा लगता रहा है ये देखना के तमाम आतंकवादी हमलों के बाद शहर फिर उठ खड़े होते हैं। बडे जोश - उमंग से बताया भी जाता रहा है...दिल्ली दिलवालों की...आमची मुंबई....हैदराबाद या कोई और 'बड़ा' शहर... फिर से अपने काम में लग जाता है। सदमों को भुलाने की अद्भुत क्षमता है हमारी और अब तो इन तमाम दशकों में हम पारंगत हो चुके हैं हमलों को भूलने में। हमारे फ्रेंड सर्कल में अगर कोई इतना बेशर्म भुलक्कड़ हो तो हमें हैरान होकर पूछना पड़ता है के भाई तेरा कोई दीन ईमान है या सब बेच खाया। मेरे बड़े शहर के पढ़े-लिखे आदिवासिओ(वो जंगलों में रहकर भी हमसे कहीं ज़्यादा सभ्य हैं अभी तक) अपना कोई दिन ईमान बचा है या हमने अख़बार की रद्दी-सा सब बेच खाया। एक दिन पहले ही किसी अपने से मुंबई और दिल्ली को लेकर बात हो रही थी। दिल्ली बेशर्म है, यहाँ आप अपने परिवार के साथ चलते हैं तो आस-पास चलते लोगों की आँखें गन्दी दिखती हैं। जिस तरह से यहाँ महिलाओं को ताका जाता है-टोका जाता है वो ही यहाँ की पहचान है। मुंबई का उन्होंने अपना कुछ साल पहले का अनुभव बताया कि वहाँ भीड़ तो है