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Showing posts from August, 2013

ए बंदा बना के तूँ दस की लभया...

हिंदुस्तान की ज़िंदादिली बड़ी पसंद रही है। बड़ा अच्छा लगता रहा है ये देखना के तमाम आतंकवादी हमलों के बाद शहर फिर उठ खड़े होते हैं। बडे जोश - उमंग से बताया भी जाता रहा है...दिल्ली दिलवालों की...आमची मुंबई....हैदराबाद या कोई और 'बड़ा' शहर... फिर से अपने काम में लग जाता है। सदमों को भुलाने की अद्भुत क्षमता है हमारी और अब तो इन तमाम दशकों में हम पारंगत हो चुके हैं हमलों को भूलने में। हमारे फ्रेंड सर्कल में अगर कोई इतना बेशर्म भुलक्कड़ हो तो हमें हैरान होकर पूछना पड़ता है के भाई तेरा कोई दीन ईमान है या सब बेच खाया। मेरे बड़े शहर के पढ़े-लिखे आदिवासिओ(वो जंगलों में रहकर भी हमसे कहीं ज़्यादा सभ्य हैं अभी तक) अपना कोई दिन ईमान बचा है या हमने अख़बार की रद्दी-सा सब बेच खाया। एक दिन पहले ही किसी अपने से मुंबई और दिल्ली को लेकर बात हो रही थी। दिल्ली बेशर्म है, यहाँ आप अपने परिवार के साथ चलते हैं तो आस-पास चलते लोगों की आँखें गन्दी दिखती हैं। जिस तरह से यहाँ महिलाओं को ताका जाता है-टोका जाता है वो ही यहाँ की पहचान है। मुंबई का उन्होंने अपना कुछ साल पहले का अनुभव बताया कि वहाँ भीड़ तो है

॥ कौण जाणे गुण तेरे ॥

॥ कौण जाणे गुण तेरे ॥  भारत के पास एक अच्छी परम्परा है के यहाँ बिना प्रासंगिकता देखे किसी को भी-कुछ भी ज़बरदस्ती सिखा दिया जाता है। हाँ , पर अरसे बाद यही ठुंसा हुआ ज्ञान काम आ जाता है। सांस्कृतिक इतिहास की समझ रखकर इसे बिना किसी टकराव के परिष्कृत करने वाले मन (दिमाग नहीं) को कहीं भी-कुछ भी अपना मिल ही जाता है। बचपन की वो अधपकी अनुभव रोटियाँ जब पकती हैं तो मज़ा आ जाता है। किसी भाषा को सीखना पड़ा हो और वो आगे कभी सुनने-बोलने को मिल जाए , किसी जगह पे कुछ ऐसा देखने को मिले जो बचपन में देखा था , या देखना पड़ा था , तो हम अपने आपको ज्ञान कोष मान लेते हैं और सिखा देते हैं अनजान को वो जो हमें ख़ुद थोड़ा ही आता है। अक्षरधाम मंदिर में जाकर , ' उनके ' गुरुओं ने कौन सी ' मेरी ' बातें कहीं- यही अच्छा लगा। निसंदेह , मुझे मेरा राष्ट्रवाद हठी प्रतीत होता है- शायद सही शब्दों में तो मैं इसे स्वयंवाद कहूँगा- परन्तु इसमें उकसाने वाला कुछ नहीं है। राष्ट्रवाद बहुत छोटी सी भावना है। कभी राष्ट्रभक्ति या देशभक्ति में उलझ भी जाती है और फिर बाँध दी जाती है संकीर्णता में-भ्रम और धर्

चार पंक्तियाँ: अर्थात: ""चाप""

चार पंक्तियाँ: अर्थात: ""चाप"" प्रथम प्रस्तुत है... पन्ने-पन्ने नाम तुम्हारा पढ़ना-सुनना लिखना-कहना यही तो है बस काम हमारा! प्रस्तुत है- चाप 2 आओ मैं लिखूं तुम्हारी बातें आज की बात यही है कविता इस से अच्छी और भला क्या होगी वो बात जो मैंने सुनी-और तुमने कही है। चार पंक्तियाँ: चाप 3 अधपकी नींद-अनबनी ईमारत सी चरमराती है ये देख इस ख्व़ाब की लकीरें उस ख़्वाब तक जाती हैं। धुंधली रौशनी में इतना तो असर ज़रूर होता है आँखे जो इक साथ खुली हों - जुगनू सी जगमगाती हैं। चाप 04 तुम लौटो तो ज़रा उस कोने में दीवारें मिलती हैं जहां साथ साथ. हम अपनों से बतियाते हैं यहीं सकुचाते भी तो हैं हम सिर्फ किसी कोने में!