आज दिन पहले से ज़्यादा गोरा हो गया है...

कुछ अलग-सा है हर रोज़ से

आज का दिन

कहूँ इसको नया तो भी ग़लत ना होगा

दीवारें छोटी होती जा रहीं हैं

और

मिट्टी उँची हो गयी है...

बारिश मे भीग कर ज़मीन एसी लग रही है

जैसे

किसी ने छोटे से चेहरे को नहला दिया हो

घना आसमान कान के पीछे लगा

काला टीका याद करवाने लगा है....

मौसम ने मुझे मेहमान मान कर

सब कुछ सजा दिया है...

हवा की उंगलियो मे कहीं-कहीं,

नाखूनों के बीच

पानी जमा हो गया है...

और

मेरा बचपन उसमे

छप्प -छप्प करता हुआ खेल रहा है...

रोज़ की दौड़-धूप ने

जिसे मैला कर डाला था

वो आज फिर सुंदर हुआ है...

सचमुच!

आज दिन पहले से ज़्यादा गोरा हो गया है...

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