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Showing posts from December, 2014

पहली बार आज सुबह...

पहली बार आज सुबह... हर रोज़ की तरह दफ़्तरी भाग-दौड़ थी कुछ नया ना भी होता तो कुछ अचम्भा न था... पता-सा था कि जाना है दफ़्तर सड़क रास्ते-सड़क बनकर। रोज़ का आना जाना ऐसा है के जैसे मेरे और उस कंकरीट संसार के बीच मैं ही सड़क बन गया हूँ। खैर... आज की सुबह अलग हुई कैसे भला... देर तक खेला-की बातें मैंने उस से और उसने जवाब भी दिए सब सही और सटीक जवाब। स्वर आते हैं सारे उसे। और मुझे वो संगीत लगता है। गोद में लिया सीधे हाथ तरफ और काँधे लगाया वाम हस्त थपकी दोनों जोड़ी आँखों का मिलना मद्धम मद्धम सी नींद झुकती पलकों में प्यार और फिर उसने अपना मुझ-सा चेहरा रखा मेरे काँधे नन्ही हथेली से थामा मुझे और पहली-सी बार मुझे गले लगाया... सो गया-मीठी मीठी नीनि! ...और समझाया कि प्यार-अपनत्व-हमारा रिश्ता कितना दैवीय है। :एकलव्य के लिए!

शहर को ज़िंदा करें कैसे...

कोई अगर शहर ज़िंदा करने निकले तो कहाँ-कहाँ सांस फूंकने पड़ेंगे? जवाब नहीं मांग रहा मैं मुझे तो पता है कि पता है तुम्हें। मिलकर ही तो दम घोटा है शहर का। कभी क़स्बा रहा होगा उस से भी पहले गावँ और उस से भी पहले ज़मीन हुई होगी। ज़मीन जिसे पता नहीं था कि बंटेगी मात्र नहीं ढकी भी जायेगी और छिनी जायेगी। शहर ज़िंदा करने निकलो तो दरख़्त ज़िंदा करने पड़ेंगे पर कैसे करोगे दरख़्त कहाँ हैं अब हज़ारों कस्बों नें आकर शहर को ढक दिया है छुपा दिया है दरख़्तों को। कुछ जो नज़र आते भी हैं कृत्रिम-समर्पित संग्रहालय हैं बस। सड़क के किनारे चौराहों पे भी भला कभी पेड़ जीते हैं। जो हैं हरे-वो हैं डरे नहीं डरेंगे तो फेंक दिए जाएंगे। शहर में ज़मीन-पेड़ों के अलावा रिश्ते-इंसान भी मरा है। और इनकी चिकित्सा संभव नहीं। जिसको ठीक करना है वही तो गुनाहगार है। ख़ुद को सज़ा देगा नहीं। तो भला शहर को ज़िंदा करें कैसे...