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Showing posts from September, 2013

सारा दिन बैठा रहा शनि

मेट्रो स्टेशन के बाहर वहाँ जहाँ पास में खड़ी होती हैं कुछ रेहड़ियाँ - बहुत सारी रिक्शा जहाँ है एक पान-बीड़ी वाला और एक नीली वर्दी वाला भी, जिसका काम वैसे तो डाँटना-डपटना है रिक्शावालों को पर जैसे दो अलग-अलग दरख़्त दोस्त बन जाते हैं- वे भी सब दोस्त हैं अब। स्टेशन के बाहर वहीं गेट नंबर 2 की ओर जाते हुए फुटपाथ के सिरे पे रखा है एक काला लोहे का कनस्तर बिना ढक्कन का धुआँ-धुआँ है पास-आस उसके और खुले उस कनस्तर में कुछ पैसे पड़े हैं सटे-सटे से बहुत और कुछ अलग-थलग वो धूप-सुगंध घेराव कर रही है मनघड़न्त से साइज़-शेप के ढले उस धातु के टुकड़े का जो शायद लोहे का ही है। वहाँ वैसे कोई बैठा नहीं है-मैला सा कुर्ता और गमछा पहने! शनि बैठे हैं वहाँ और जो डरते हैं उनसे- अर्थात जो मिले नहीं हैं उनसे कभी वे- कुछ दान देते हैं कनस्तर को शनि सुबह से वहीं बैठा है लावारिस.... दोपहर को भी और जब मैं लोटता हूँ शाम को तब भी वही धूप-कनस्तर और शनि! कितनी आस्था रखते हैं लोग कनस्तर में- और शनि को कोई पूछता भी नहीं। जैसे-जैसे भरता है खुल्ले पैसों से खाली होता है शनि... हर हफ़्ते फिर आ जाता है कनस्तर अपने शनि के साथ!

हिंदी! तुम अब भी हो!

तुम बचपन से लेकर यौवन तक-साथ हो जो सीखा है तुम रही हो उसमें और जो सीखना है उसका भी माध्यम मूलत: तुम ही रहोगी! तुम शाश्वत उपस्थिति हो तुम सकारात्मक परिस्थिति हो तुम भरी पड़ी हो भावों से आयी हो कितने मुश्किल पड़ावों से किसी को जकड़ना हो अगर तो बस तुम्हें ही चोट पहुँचाना क़ाफी है सदियां गुज़री हैं तेरे साथ और तुम्हें मानकर! तेरा सम्मान करना सबके प्यार का सम्मान करना है और तुझे सीखना  सोचना सीख लेना है! तुम कविता कहळवती हो तुम कहानियाँ रचवाती हो तुम टूटमूईया-बेतरतीब लिखवा देती हो पर... तुम एक दिन मात्र बन के रह गयी हो तुम्हें मानने-अपनाने के लिए अब सरकारी आदेश आते हैं तुम तो सार्वभौमिक थीं ये क्या... तुम इतनी कमज़ोर कैसे हो गयीं  या के? तुम तो अब भी मज़बूत-सबल हो परंतु तुम्हें बोलने वाले अब निरीह-शिथिल हो चुके हैं हाइब्रिड जीवन जीने वालों ने तुम्हारा मोल-भाव किया है अपनी नयी सीखी भाषा से... हिन्दी... तुम आधुनिकों को अच्छी ना भी  लगो   तो... तो क्या हुआ... मैं  तो अब भी तुमसे ही सोचता-कहता हूँ और मेरे जैसे और भी है...बहुत सारे-सब हमारे! हिन्दी दिवस (14 सितंबर)

धर्म ...कभी भूखे पेट सोये हो क्या...

धर्म तुम दिखने में कैसे हो देखा नहीं है तुम्हें कभी... तुम शरीर हो क्या कोई या नाममात्र हो कुछ पंछी तो तुम नहीं हो सकते और तुम्हें पशु मैं नहीं कहना चाहता। तो भला कौन सा वर्ण है तुम्हारा,कौन से कुल के हो तुम? धर्म तुम पढ़े-लिखे भी हो क्या कभी रोटी देखी है तुमने और कभी भूखे पेट सोये हो क्या धर्म तुम बेघर भी हो क्या क्या हो तुम लहुलुहान बच्चे का चेहरा क्या तुम बिलखती हुई माँ हो हो क्या तुम एक टूटा  हुआ पिता क्या तुम असहाय बेटी हो या भड़का हुआ बेटा? ......