सारा दिन बैठा रहा शनि
मेट्रो स्टेशन के बाहर वहाँ जहाँ पास में खड़ी होती हैं कुछ रेहड़ियाँ - बहुत सारी रिक्शा जहाँ है एक पान-बीड़ी वाला और एक नीली वर्दी वाला भी, जिसका काम वैसे तो डाँटना-डपटना है रिक्शावालों को पर जैसे दो अलग-अलग दरख़्त दोस्त बन जाते हैं- वे भी सब दोस्त हैं अब। स्टेशन के बाहर वहीं गेट नंबर 2 की ओर जाते हुए फुटपाथ के सिरे पे रखा है एक काला लोहे का कनस्तर बिना ढक्कन का धुआँ-धुआँ है पास-आस उसके और खुले उस कनस्तर में कुछ पैसे पड़े हैं सटे-सटे से बहुत और कुछ अलग-थलग वो धूप-सुगंध घेराव कर रही है मनघड़न्त से साइज़-शेप के ढले उस धातु के टुकड़े का जो शायद लोहे का ही है। वहाँ वैसे कोई बैठा नहीं है-मैला सा कुर्ता और गमछा पहने! शनि बैठे हैं वहाँ और जो डरते हैं उनसे- अर्थात जो मिले नहीं हैं उनसे कभी वे- कुछ दान देते हैं कनस्तर को शनि सुबह से वहीं बैठा है लावारिस.... दोपहर को भी और जब मैं लोटता हूँ शाम को तब भी वही धूप-कनस्तर और शनि! कितनी आस्था रखते हैं लोग कनस्तर में- और शनि को कोई पूछता भी नहीं। जैसे-जैसे भरता है खुल्ले पैसों से खाली होता है शनि... हर हफ़्ते फिर आ जाता है कनस्तर अपने शनि के साथ!