सड़क से सड़क
आलू गन्ने सरसों गेहूं ! सूरज की सुनहरी किरणों से चमकते-इठलाते... खेत देख रहा मैं सड़क से सड़क जाते। कितना कुछ है समझने-देखने को! जीवन को संसाधनों को ये प्रकृति कैसे अनुमति देती ...
मैं जब बात करूं कोने की तो बात अपनी सी लगती है दो दीवारें मिलती हैं दो किरदार भागे जाते हैं कोने की ओर कुछ अपनी बातें भी तो कोने में ही हो पाती हैं. कोने में रहना संतुष्टि देता है सबल करता है प्रबल बनता है और शायद प्रवीण भी! कोने का केबिन कोई खोज नहीं है यह सब पाया हुआ है संजोया हुआ है बांटने आया हूँ बस! दफ़्तर में केबिन कोने में ही है.... अपनापन अपनेपन से हो ही जाता है!