अब कोई छोटा नहीं रहा ना...
तुम बड़ी-बड़ी बातें किया करते मैं छोटी-छोटी बातें करता था... बातों में भला ये भेद- कैसा ? टकराता था बड़प्पन कभी मुझसे तो और छोटा हो जाता था और इसी उम्मीद में कि एक दिन हम बराबर हो जाएँगे- सब अपना लिया जाता था! किसी एक क्षण में तुम भी क्षीण होते थे और मैं भी... और कोई भी नहीं होता था! तभी शायद बोध होता हमारे अपनेपन को बड़प्पन का और हम ठहाके लगाते थे , उन्हीं लड़कपन की बातों पर। परिपक्व होना अपने भूत की ओर दोनों आँखों से देखना ही होता है शायद , बिना किसी डर के! आज फिर , हम उसी बहस में उलझें हैं कोई तरतीब नहीं- बस बड़ी बड़ी बातें अब दोनों करते हैं अब कोई छोटा नहीं रहा ना॥